चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं
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मिलती नहीं मनचाही फ़िज़ा
सभी आशाएँ दम तोड़ती हैं
तन्हा-तन्हा बहुत हुआ सफ़र
चलो नयी फ़िज़ा हम सजाते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
आसान नहीं हर इल्ज़ाम सहना
बेगुनाही जतलाना भी मुमकिन कब होता है
बहुत दूर ठिठका है आसमान
चलो कुछ आसमान अपने लिए तोड़ लाते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
बेसबब तो नहीं होता यूँ मुँह मोड़ना
ज़मीन को चाहता है कौन छोड़ना
धुँधली-धुँधली नज़र आती है ज़मीन
चलो आसमान पे घर बसाते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
दुनिया के रिवाजों से थक गए
हर दौर से हम गुज़र गए
सब कहते दुनिया के क़ाएदे हम नहीं निभाते हैं
चलो एक और गुनाह कर आते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
- जेन्नी शबनम (23. 5. 2011)
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मिलती नहीं मनचाही फ़िज़ा
सभी आशाएँ दम तोड़ती हैं
तन्हा-तन्हा बहुत हुआ सफ़र
चलो नयी फ़िज़ा हम सजाते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
आसान नहीं हर इल्ज़ाम सहना
बेगुनाही जतलाना भी मुमकिन कब होता है
बहुत दूर ठिठका है आसमान
चलो कुछ आसमान अपने लिए तोड़ लाते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
बेसबब तो नहीं होता यूँ मुँह मोड़ना
ज़मीन को चाहता है कौन छोड़ना
धुँधली-धुँधली नज़र आती है ज़मीन
चलो आसमान पे घर बसाते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
दुनिया के रिवाजों से थक गए
हर दौर से हम गुज़र गए
सब कहते दुनिया के क़ाएदे हम नहीं निभाते हैं
चलो एक और गुनाह कर आते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं।
- जेन्नी शबनम (23. 5. 2011)
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12 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत रचना बात दिल को छु गयी आपकी
पहले इस जहाँ को अपनी उम्मीदों जैसा बनाने की कोशिश करेंगे हम , फिर आपकी बात में भी कोई बात है . अच्छे शब्दांकन हेतु बधाई
मिलती नहीं मनचाही फ़िज़ा
सभी आशाएं दम तोड़ती हैं
तन्हा तन्हा बहुत हुआ सफ़र
चलो नयी फ़िज़ा हम सजाते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं!... khoobsurat khyaal
kya baat hai sabnam G
पूरी रचना बहुत ही खूब.कुछ भी छोड़ दूं तो नाइंसाफी होगी...
MAM APKI YE RACHNA KUCH KARNE KI HIMMAT PARDAN KARTI HAI.
JAI HIND JAI BHARAT
चलो एक और गुनाह कर आते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं!
bahut pasand aayee.
विचार और इरादे बहुत ही तो नेक हैं...:-)वैसे चाँद पर भी 'प्लाट' 'बुक' होने लगे हैं...
सुन्दर ,इमानदार और भाव-प्रवीण रचना...
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं!bhut bhut hi sunder rachna... very nice
आसान नहीं हर इल्ज़ाम सहना
बेगुनाही जतलाना भी मुमकिन कब होता है
बहुत दूर ठिठका है आसमान
चलो कुछ आसमान अपने लिए तोड़ लाते हैं
आपने सच कहा है -बेगुनाही जतलाना कभी मुमकिन नहीं होता ।सच्चा व्यक्ति झूठे की तरह साफ़ -सुथरे तर्क नही गढ़ सकता है, मधुरता में सराबोर करके झूठी कसमें नहीं खा सकता। इतना सब कुछ होने पर भी विश्वास न किया जाना सबसे बड़ी चोट है । आपने कड़वा सच बयान किया है । बहुत अन्तर्द्वन्द्व से भरी है आपकी यह कविता !
दुनिया के रवाजों से थक गए
हर दौर से हम गुज़र गए
सब कहते दुनिया के काएदे हम नहीं निभाते हैं
चलो एक और गुनाह कर आते हैं
चलो अपना जहाँ अलग हम बसाते हैं!
अच्छी रचना अच्छे भाव के साथ....
बहुत ख़ूब
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