साढ़े तीन हाथ की धरती
-जेन्नी शबनम (28.7.2012)
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आकाश में उड़ते पंछी
आकाश में उड़ते पंछी
कटी-पतंगों की भाँति
ज़मीन पर आ गिरते हैं।
नरक के द्वार में बिना प्रवेश
तेल की कड़ाह में जलना
जाने किस जन्म का पाप
इस जन्म में भोगना है।
दीवार पर खूँटी से टँगी
एक जोड़ा कठपुतली को
जाने किस तमाशे का इन्तिज़ार है।
ठहाके लगाती छवि
और प्रसंशा में सौ-सौ सन्देश
अनगिनत सवालों का
बस एक मूक जवाब
हौले-से मुस्कान है।
उफ़! कोई कैसे समझे?
अन्तरिक्ष से झाँककर देखा
चाँद और पृथ्वी
और उस जलती अग्नि को भी
जो कभी पेट में जलती है
तो कभी जिस्म को जलाती है।
इस आग से पककर
कहीं किसी कचरे के ढेर में
नवजात का बिलबिलाना
दोनों हाथों को बाँधकर
किसी की उम्र की लकीरों से
पाई-पाई का हिसाब खुरचना।
ओह! तपस्या किस पर्वत पर?
अट्टहास कानों तक पहुँच
मन को उद्वेलित कर देता है
टीस भी और क्रोध भी
पर कृतघ्नता को बर्दाश्त करते हुए
पार जाने का हिसाब-किताब
मन को सालता है।
आह! कौन है जो अडिग नहीं होता?
साढ़े तीन हाथ की धरती
बस आख़िरी इतना-सा ख़्वाब।
-जेन्नी शबनम (28.7.2012)
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21 टिप्पणियां:
वाह..
अद्भुत रचना..
अनु
अनगिनत सवालों का
बस एक मूक जवाब-
हौले से मुस्कान है
सही कह रही हैं आप,
अनसुलझे सवालों का बस यही जवाब सूझता है - मुस्कान जैसी लगती, होठों की हल्की-सी जुम्बिश !
aapki kavita ko bade gour se pada hai aapne sawalon me se sawaalon ko kuredte hue kaee sandarbhon ko jhinjhodne kii saphal koshish kii hai jo kavita ke prati aashvast kartii hai,shubhkamna.
सुन्दर प्रस्तुति .. आभार
तपस्या किस पर्वत पर?
अट्टहास कानों तक पहुँच
मन को उद्वेलित कर देता है
टीस भी और क्रोध भी
पर कृतघ्नता को बर्दाश्त करते हुए
पार जाने का हिसाब-किताब
मन को सालता है
आह्ह...
कौन है जो अडिग नहीं होता? ...गहन सोच
Aah!
very deep... loved it.. thanks
बढ़िया भावाभिव्यक्ति .
बेहद उम्दा रचना !
आपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है, भिक्षावृत्ति मजबूरी नहीं बन रहा है व्यवसाय - ब्लॉग बुलेटिन , के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
आह्ह...
कौन है जो अडिग नहीं होता?
साढ़े तीन हाथ की धरती
बस आखिरी
इतना सा ख्वाब...
बहुत बढ़िया,बेहतरीन प्रस्तुति,,,,,,
RECENT POST,,,इन्तजार,,,
तपस्या किस पर्वत पर?
अट्टहास कानों तक पहुँच
मन को उद्वेलित कर देता है
टीस भी और क्रोध भी
पर कृतघ्नता को बर्दाश्त करते हुए
पार जाने का हिसाब-किताब
मन को सालता है
मन को सालती ह्रदय को मथती विचारों को उद्वेलित करती प्रवाह में बहाती रचना
कोई कैसे समझे?
अंतरिक्ष से झाँक कर देखा
चाँद और पृथ्वी
और उस जलती अग्नि को भी
जो कभी पेट में
तो कभी जिस्म को जलाती है
क्या कहूं छलक मेरे आँख हँसने से पहले
कौन है जो अडिग नहीं होता?
साढ़े तीन हाथ की धरती
बस आखिरी
इतना सा ख्वाब..
खुबसूरत सवाल मन को कुरेदती
जीवन की नग्न सच्चाई उकेर दी अपने अपनी इस रचना में
बेहतरीन कविता जेन्नी जी बधाई |
बहुत अद्भुत और सुन्दर प्रस्तुति .. आभार
सुन्दर प्रतिमान और अनूठी कल्पना....
गहनता लिये हुए बेहतरीन रचना
सुंदर कविता
.
बहुत क्लिष्ट सवालों के साथ चलती हुई कविता मन को उद्वेलित करती है …
आपकी पिछली दिनों न पढ़ी हुई बहुत सारी रचनाएं अभी पढ़ी हैं ।
हाइकु और सेदोका पढ़ना अच्छा लगा …
ज्ञान भी बढ़ा :)
आभार सहित मंगलकामनाएं !
अट्टहास कानों तक पहुँच
मन को उद्वेलित कर देता है
टीस भी और क्रोध भी
पर कृतघ्नता को बर्दाश्त करते हुए
पार जाने का हिसाब-किताब
मन को सालता है
आह्ह...
....जीवन में उठते प्रश्नों का गहन चिंतन..बहुत उत्कृष्ट रचना...
अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
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