गुरुवार, 1 अगस्त 2019

621. उधार

उधार 

*** 

कुछ रंग जो मेरे हिस्से में नहीं थे 
मैंने उधार लिए मौसम से   
पर न जाने क्यों   
ये बेपरवाह मौसम मुझसे लड़ रहा है 
और माँग रहा है अपना उधार वापस 
जिन्हें ख़र्च कर दिया उन दिनों   
जब मेरे पास जीने को कोई रंग न था। 
   
सफेद-स्याह रंगों का एक कोलाज बचा था मेरे पास   
वह भी धुक-धुक साँसें ले रहा था   
ज़िन्दगी से रूठा वह कोलाज   
मुझे भी जीवन से पलायन के रास्ते बता रहा था   
पर मुझे जीना था, अपने लिए जीना था   
बहुत ज़्यादा जीना था, हद से ज़्यादा जीना था। 
   
हाँ! जानती हूँ, उधार लेना और उधार पर जीना ग़ैरवाज़िब है   
जानती हूँ, मैं कर्ज़दार हूँ और चुकाने में असमर्थ भी   
फिर भी मैं शर्मसार नहीं।    

-जेन्नी शबनम (1.8.2019) 
__________________

2 टिप्‍पणियां:

सहज साहित्य ने कहा…

उधार दिल को बहुत गहरे तक छूने वाली कविता है , जिसमें आपने जीवन की सच्छाई पिरो दी है। हार्दिक बधाई ! _रामेश्वर काम्बोज

प्रीति अग्रवाल ने कहा…

जेन्नी जी ठीक किया अपने, गीता में लिखा है आज जो तुम्हारा है कल किसी और का था, और कल किसी और का होगा.....फिर कैसे उधार!:)