बिछड़े खेत
***
खेत बेचारे
एक दूजे को देखें
दुख सुनाएँ
भाई-भाई से वे थे
सटे-सटे-से
मेड़ से जुड़े हुए,
बिछड़े खेत
बिक गए जो खेत
वे रोते रहे
मेड़ बना बाउंड्री
कंक्रीट बिछे
खेत से उपजेंगे
बहुमंज़िला
पत्थर-से मकान,
खेत के अन्न
शहर ने निगले
बदले दिए
कंक्रीट के जंगल,
खेत का दर्द
कोई न समझता
धन की माया
समझे सरमाया,
खेत-किसान
बेबस व लाचार
हो रहे ख़त्म
अन्न, खेत, किसान
खेत न बचा
अन्न कहाँ उपजे?
कौन क्या खाए?
ओ सरमायादार
अब तू पत्थर खा।
- जेन्नी शबनम (2.8.2023)
___________________
6 टिप्पणियां:
आप ने लिखा.....
हमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 06/08/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर 🙏
सुंदर
अब तू पत्थर खा। :)
पत्थर खाने पर भी कर ना लग जाए कहीं |
सुन्दर |
भाई-भाई से वे थे
सटे-सटे-से
मेड़ से जुड़े हुए,
बिछड़े खेत
बिक गए जो खेत
सही कहा..अब तो सभी खेत बस बिल्डिंग में तब्दील...
ओ सरमायादार
अब तू पत्थर खा।
बहुत सटीक एवं सुन्दर सृजन।
एक टिप्पणी भेजें