काँच के ख़्वाब (चोका)
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काँच के ख़्वाब
फेरे जो करवट
चकनाचूर
हुए सब-के-सब,
काँच के ख़्वाब
दूसरा करवट
लगे पलने
फेरे जो करवट
चकनाचूर
फिर सब-के-सब,
डर लगता
कहीं नींद जो आई
काँच के ख़्वाब
पनपने न लगे,
ख़्वाब देखना
हर पल टूटना
अनवरत
मानो टूटता तारा
आसमाँ रोता
मन यूँ ही है रोता,
ख़्वाब देखता
करता नहीं नागा
मन बेचारा
ज्यों सूरज उगता,
हे मन मेरा!
समझ तू ये खेला
काँच का ख़्वाब
यही नसीब तेरा
न देख ख़्वाब
जिसे होना न पूरा,
चकोर ताके
चन्दा है मुस्कुराए
मुँह चिढ़ाए
पहुँच नहीं पाए
जान गँवाए
यूँ ही काँच के ख़्वाब
मन में पले
उम्मीद है जगाए,
पूरे न होते
फेरे जो करवट
चकनाचूर
होते सब-के-सब
मेरे काँच के ख़्वाब।
-जेन्नी शबनम (25.9.2023)
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4 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 4 अक्टूबर 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
बहुत ही सुन्दर
वाह
लाजवाब 🙏
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