रविवार, 8 मार्च 2009

35. कल रात (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 29)

कल रात

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कल तमाम रात
मैंने तुमसे बातें की थी 

तुम सुनो कि न सुनो, ये मैंने सोचा नहीं
तुम जवाब न दोगे, ये भी मैंने सोचा नहीं,
तुम मेरे पास न थे, तुम मेरे साथ तो थे 

कल हमारे साथ, रात भी जागी थी
वक़्त भी जागा, और रूह भी जागी थी,
कल तमाम रात, मैंने तुमसे बातें की थी। 

कितना ख़ुशगवार मौसम था
रात की स्याह चादर में
चाँदनी लिपट आई थी
और तारे खिल गए थे। 

हमारी रूहों के बीच
ख़यालों का काफ़िला था
सवालों जवाबों की लम्बी फ़ेहरिस्त थी
चाहतों की, लम्बी क़तार थी। 

तुम्हारे शब्द ख़ामोश थे
तुम सुन रहे थे न
जो मैंने तुमसे कहा था!

तुम्हें हो कि न हो याद
पर, मेरे तसव्वुर में बस गई
कल की हमारी हर बात
कल की हमारी रात। 

कल तमाम रात
मैंने तुमसे बातें की थी। 

- जेन्नी शबनम (1. 3. 2009)
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1 टिप्पणी:

हकीम जी ने कहा…

Wah! fine very beautiful

कल रात मोहब्बत बट सी गई
जब चादर मन की फट सी गई
एक टुकडे से आंसू पोंछे
दूजे में खुशियाँ सिमट सी गई ............गुरु कवि हकीम..