रविवार, 23 जनवरी 2011

207. पाप तो नहीं

पाप तो नहीं

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जीवन के मायने हैं 
जीवित होना या जीवित रहना 
क्या सिर्फ़ साँसें ही तक़ाज़ा हैं?
 
फिर क्यों दर्द से व्याकुल होता है मन
क्यों कराह उठती है आत्मा
पूर्णता के बाद भी
क्यों अधूरा-सा रहता है मन?
 
इच्छाएँ कभी मरती नहीं
भले कम पड़ जाए ज़िन्दगी
पल-पल ख़्वाहिशें बढ़ती हैं 
तय है कि सब नष्ट होना है
या फिर छिन जाना है
 
सुकून के कुछ पल
क्यों कभी-कभी पूरी ज़िन्दगी से लगते हैं?
यथार्थ से परे न सोचना है, न रुकना है
ज़िन्दगी जीना या चाहना
पाप तो नहीं?

- जेन्नी शबनम (23.1.2011)
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7 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

जीवन के मायने
जीवित होना या जीवित रहना,
क्या सिर्फ
सांसें हीं तकाज़ा है?

बहुत बड़ा सवाल है! सुन्दर अभिव्यक्ति!

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सुकून के कुछ पल
क्यों कभी कभी
पूरी ज़िन्दगी से लगते हैं?
यथार्थ से परे
न सोचना है
न रुकना है,
ज़िन्दगी जीना या चाहना
पाप तो नहीं?

बहुत सुंदर .....

रश्मि प्रभा... ने कहा…

saans lene ko to jeena nahi kahte yaarab ...

bahut achhi rachna

सहज साहित्य ने कहा…

सुकून के कुछ पल
क्यों कभी कभी
पूरी ज़िन्दगी से लगते हैं?
यथार्थ से परे
न सोचना है
न रुकना है,
ज़िन्दगी जीना या चाहना
पाप तो नहीं? आपकी ये पंक्तियाँ मानव-सत्य को प्रस्तुत करती हैं । आकांक्षाएँ जीवन का ही रूप हैं। जिन्दा रहने के लिए यथार्थ से परे सोचना , चाह रखना ही वास्तव में जीवन का लक्षण है । आपने इसे बेहतर ढ्।म्ग से पेश किया है ।

***Punam*** ने कहा…

"पूर्णता के बाद भी
क्यों अधूरा सा रहता है मन,"



जीवन की यही विडंबना है...

कि पूर्ण हो कर भी

हम स्वयं को अपूर्ण समझते हैं..

और सवाल वहीँ का वहीँ ..

जवाब नदारत...

mridula pradhan ने कहा…

bahut achcha likhi hain.

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) ने कहा…

सुकून के कुछ पल
क्यों कभी कभी
पूरी ज़िन्दगी से लगते हैं?

:-) sunder...!