बुधवार, 4 मई 2011

240. हवा ख़ून-ख़ून कहती है

हवा ख़ून-ख़ून कहती है

***

जाने कैसी हवा चल रही है
न ठण्डक देती है, न साँसें देती है
बदन को छूती है 
तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है। 

हवा अब बदल गई है
यूँ चीखती-चिल्लाती है मानो
किसी नवजात शिशु का दम अभी-अभी टूटा हो
किसी नवब्याहता का सुहाग अभी-अभी उजड़ा हो
भूख से कुलबुलाता बच्चा भूख-भूख चिल्लाता हो
बीच चौराहे किसी का अस्तित्व लुट रहा हो और
उसकी गुहार पर अट्टहास गूँजता हो। 

हवा अब बदल गई है
ऐसे वीभत्स दृश्य दिखाती है 
मानो विस्फोट की तेज लपटों के साथ 
बेगुनाह इन्सानी चिथड़े जल रहे हों
ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए 
लोग घर में क़ैदी हो गए हों
पलायन की विवशता से आहत 
कोई परिवार अन्तिम साँसें ले रहा हो
खेत-खलिहान, जंगल-पहाड़ निर्वस्त्र झुलस रहे हों। 

जाने कैसी हवा है
न नाचती है, न गाती है
तड़पती, कराहती ख़ून उगलती है। 

हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इन्सानी बदन का लहू गाँव-शहर में
और छिड़क देती है 
मन्दिर-मस्जिद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनाती है। 

हवा अब बदल गई है 
अब साँय-साँय नहीं कहती
अपनी प्रकृति के विरुद्ध ख़ून-ख़ून कहती है
हवा बदल गई है 
ख़ून-ख़ून कहती है। 

- जेन्नी शबनम (20.4.2011)
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22 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर भावना पूर्ण रचना | धन्यवाद

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

bahan shbnam ji aaj ke haalaaton par stik rchnaa byaan kr daali hai bdhaai ho . akhtar khan akela kota rajsthan

vandana gupta ने कहा…

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (5-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

awesh ने कहा…

परम आदरणीय जेन्नी जी ,बहुत ही उद्वेलित कर देने वाली कविता है ,जीवन की थकन में ऐसी कविता पढ़कर बोझिल होने को जी नहीं चाहता ,मगर ये इस समय का सच है,हमें इनसे जूझना ही होगा |श्रेष्ठ रचना के लिए बधाई |

वाणी गीत ने कहा…

हर रोज अखबार की हेड लाईन्स या टी वी पर समाचार भी यही कहते हैं ...
मार्मिक !

रश्मि प्रभा... ने कहा…

हवा अब बदल गई है
यूँ चीखती चिल्लाती है मानो
किसी नवजात शिशु का दम अभी अभी टूटा हो
किसी नव ब्याहता का सुहाग अभी अभी उजड़ा हो
भूख़ से कुलबुलाता बच्चा भूख़ भूख़ चिल्लाता हो
बीच चौराहे किसी का अस्तित्व लुट रहा हो और
उसकी गुहार पर अट्टहास गूंजता हो|
kya abhivyakti hai ! gajab

Kailash Sharma ने कहा…

हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में
और छिड़क देती है मंदिर-मस्ज़िद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनती है|

बहुत गहन और सार्थक सोच..इस हवा को हमें फिर बदलना होगा..बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..

SAJAN.AAWARA ने कहा…

AAJ KE SAMAAJ KE KUCH PAHLUWON PAR BTATI EK VICHLIT KARNE WALI RACHNA. . . . . . . JAI HIND JAI BHARAT

विभूति" ने कहा…

bhut hi gabhir vichar abhivakti,aur usme sabdo ka chayan behad khubsurat...

udaya veer singh ने कहा…

behatarin post .shukriya ji.

मनोज अबोध ने कहा…

आपकी कविता वटवृक्ष में पढी, आपका ब्‍लॉग देखा, बहुत अच्‍छा लगा , दिल्‍ली हिन्‍दी भवन में ब्‍लॉगर्स सम्‍मेलन में भी आपकी चर्चा सुनी । बधाई स्‍वीकारें......

मनोज अबोध ने कहा…

आपकी कविता वटवृक्ष में पढी, आपका ब्‍लॉग देखा, बहुत अच्‍छा लगा , दिल्‍ली हिन्‍दी भवन में ब्‍लॉगर्स सम्‍मेलन में भी आपकी चर्चा सुनी । बधाई स्‍वीकारें......

Anupama Tripathi ने कहा…

दर्द भरी ...कैसी हवा है ...रूह स्तब्ध कर गयी ...गम के अथाह सागर में डुबो गयी .....!!
बहुत सुंदर रचना ...बधाई आपको .

Anupama Tripathi ने कहा…

दर्द भरी ...कैसी हवा है ...रूह स्तब्ध कर गयी ...गम के अथाह सागर में डुबो गयी .....!!
बहुत सुंदर रचना ...बधाई आपको .

mridula pradhan ने कहा…

bahot achche.....

मनोज कुमार ने कहा…

मार्मिक रचना।

विशाल ने कहा…

जाने कैसी हवा है
न नाचती है न गीत गाती है
तड़पती, कराहती, खून उगलती है|

बहुत ही खूब.
बहुत खूब लिखती हैं आप.
आपकी कलम को सलाम.

सहज साहित्य ने कहा…

सचमुच हवा बदल गई है या यों कहिए तरह -तरह के झूठे आदर्शों में लपेटकर अपने चिन्तन और कर्म को अलग-अलग रास्तों पर धकेल दिया है । निम्नलिखित पंक्तियों में एक प्रकार की छटपटाहट भरी है । गम्भीर कविता है । हवा को बहुत अच्छे प्रतीक के रूप में केवल प्रयोग ही नहीं किया वरन् आद्यन्त उसका निर्वाह भी किया है ।हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में
और छिड़क देती है मंदिर-मस्ज़िद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनती है|

Unknown ने कहा…

बेहद प्रभावशाली शब्दांकन, जीवन को करीब से देखने की प्रश्तुती बधाई

SANDEEP PANWAR ने कहा…

हवा तो आज भी साय-साय कह्ती है इंसान ही बदल गया है।

Rachana ने कहा…

हवा अब बदल गई है
अब सांय-सांय नहीं कहती
अपनी प्रकृति के विरुद्ध
खून खून कहती है,
हवा बदल गई है
खून खून कहती है|
bhav purn prastuti

रजनीश तिवारी ने कहा…

हवा के इस परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं हम । स्तब्ध करने वाली मर्मस्पर्शी रचना । धन्यवाद ।