अपशगुन
*******
उस दिन तुम जा रहे थे
कई बार आवाज़ दी
कि तुम मुड़ो और
मैं हाथ हिलाकर तुम्हें विदा करूँ,
लौटने पर तुम कितना नाराज़ हुए
जाते हुए को आवाज़ नहीं देते
अपशगुन होता है
कितना भी ज़रूरी हो न पुकारा करूँ तुम्हें।
देखो न
सच में अपशगुन हो गया
पर तुम्हारे लिए नहीं मेरे लिए,
सोचती हूँ
मेरे लिए अपशगुन क्यों हुआ?
तुमने तो कभी भी आवाज़ नहीं दी मुझे।
तुम उस दिन आए थे
अंतिम बार मिलने
अलविदा कहने के बाद मुड़े नहीं
ज़रा देर को भी रुके नहीं
जैसे हमेशा जाते हो चले गए
जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
मैं जानती थी कि
तुम्हारे पास मेरे लिए कोई जगह नहीं
फिर भी एक कोशिश थी
कि शायद...
जानती थी कि ये मुमकिन नहीं
फिर भी...
तुम मेरी ज़िन्दगी से जा रहे थे
कहीं और ज़िन्दगी बसाने,
मन किया कि तुमको आवाज़ दूँ
तुम रूक जाओ
शायद वापस आ जाओ,
पर आवाज़ नहीं दे सकती थी
तुम्हारा अपशगुन हो जाता।
*******
उस दिन तुम जा रहे थे
कई बार आवाज़ दी
कि तुम मुड़ो और
मैं हाथ हिलाकर तुम्हें विदा करूँ,
लौटने पर तुम कितना नाराज़ हुए
जाते हुए को आवाज़ नहीं देते
अपशगुन होता है
कितना भी ज़रूरी हो न पुकारा करूँ तुम्हें।
देखो न
सच में अपशगुन हो गया
पर तुम्हारे लिए नहीं मेरे लिए,
सोचती हूँ
मेरे लिए अपशगुन क्यों हुआ?
तुमने तो कभी भी आवाज़ नहीं दी मुझे।
तुम उस दिन आए थे
अंतिम बार मिलने
अलविदा कहने के बाद मुड़े नहीं
ज़रा देर को भी रुके नहीं
जैसे हमेशा जाते हो चले गए
जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
मैं जानती थी कि
तुम्हारे पास मेरे लिए कोई जगह नहीं
फिर भी एक कोशिश थी
कि शायद...
जानती थी कि ये मुमकिन नहीं
फिर भी...
तुम मेरी ज़िन्दगी से जा रहे थे
कहीं और ज़िन्दगी बसाने,
मन किया कि तुमको आवाज़ दूँ
तुम रूक जाओ
शायद वापस आ जाओ,
पर आवाज़ नहीं दे सकती थी
तुम्हारा अपशगुन हो जाता।
- जेन्नी शबनम (27. 8. 2011)
_____________________
17 टिप्पणियां:
ekdam dil ko cheer kar rakh diya......kyaa boloon.
सोच में तुम कितने ठोस थे और मैं ....... तभी तो तुमने जब जैसा चाहा कह दिया और चले गए
मर्मस्पर्शी रचना!!
♥
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और
शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
कविता बहुत अच्छी और भावपूर्ण है …
बधाई और आभार !!
'अपशगुन' कविता के माध्यम से अनुराग का जीता-जागता रूप शब्दों की रेशमी डोरी में बाँध दिया है , जिसे न रोकते बनए न टोकते। जेन्नी जी की ये पंक्तियां एक तड़प सी छोड़ जाती हैंजानती थी कि ये मुमकिन नहीं
फिर भी...
तुम मेरी ज़िन्दगी से जा रहे थे
कहीं और ज़िन्दगी बसाने,
मन किया कि तुमको आवाज़ दूँ
तुम रूक जाओ
शायद वापस आ जाओ,
पर
आवाज़ नहीं दे सकती थी
तुम्हारा अपशगुन हो जाता !। स्नेह और सम्मान के साथ काम्बोज
किसी का शगुन किसी के लिए अपशगुन
भी हो सकता है.....
मर्मस्पर्शी..........
शबनम जी ,जब भी आपके पोस्ट पर आता हूँ न जाने क्यूं मन एक सहज आत्मीय भाव से भर जाता है । आपकी अभिव्यक्ति मन के अंदर रचे-बसे कोमल भावों को दोलायमान स्थिति में ला देते हैं । बहुत ही खूबसूरत अंदाज में पेश किया हुआ भाव अच्छा लगा । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
भावसागर को बांधती मनोविज्ञान की भावगंगा है यह रचना ,मानसिक कुन्हानसे को शब्द देती .
किसी और के अपशगुन को रोकने के लिए खुद का सैक्रिफाइस करना ! मगर जो अपना अपशगुन हो गया उसका परिमार्जन भी है क्या कोई !!! शायद कभी नहीं.....
एक अपशगुन रुका लेकिन दूसरा हो गया
मन को छू लेने वाली भावपूर्ण रचना.....
बहुत सुन्दर शब्द संयोजन ...
बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति!!!
vaah bahut khoob ek mithya visvaas ne dil ko rok liya.ek gahan prem ki abhivyakti.
फिर भी एक कोशिश थी....
मन को छू लेने वाली भावपूर्ण रचना..
isi tarah likhti rahiye....ham peechhe se nahin denge aavaaz..... apsakun ho jaayegaa naa....badhiya liyaa hai...badhaayi...
एक टिप्पणी भेजें