मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

288. भस्म होती हूँ (क्षणिका)

भस्म होती हूँ

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अक्सर सोचकर हत्प्रभ हो जाती हूँ
चूड़ियों की खनक हाथों से निकल चेहरे तक
कैसे पहुँच जाती है?
झुलसता मन अपना रंग झाड़कर
कैसे दमकने लगता है?
शायद वक़्त का हाथ मेरे बदन में घुसकर
मुझसे बग़ावत करता है
मैं अनचाहे हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर अपने जिस्म से लिपट
अपनी ही आग में भस्म होती हूँ। 

- जेन्नी शबनम (1. 9. 2011)
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14 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

बेहद दर्दभरी प्रस्तुति।

रविकर ने कहा…

अपने जिस्म से लिपट
अपनी हीं आग में भस्म

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||

बहुत बहुत बधाई ||

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

itna dard kyon??

सहज साहित्य ने कहा…

जेनी शबनम जी आपकी कविताओं के भाव इतने विविध आयाम वाले होते हैं कि आपकी कविता के लिए कोई एक तेवर का नाम देना कठिन है ।।'भस्म होती हूँ मैं कविता मन के कई द्वार एक साथ खोलती है ।सारे भ्हव एक दूसरे में मोतियों की तरह अनुस्यूत होते हैं।; जिन्हें लिखा नहीं जा सकता , महसूस किया जा सकता है और अन्त में बचती है एक छटपटाहट ! ये पंक्तियाँ ऐसी ही हैं- शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,
मैं अनचाहे
हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर
अपने जिस्म से लिपट
अपनी हीं आग में भस्म होती हूँ!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

ek ankahi bechaini...

Maheshwari kaneri ने कहा…

शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

mridula pradhan ने कहा…

bahut sunder likhtin hain aap.....

***Punam*** ने कहा…

"शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,
मैं अनचाहे
हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर
अपने जिस्म से लिपट
अपनी हीं आग में भस्म होती हूँ!"

बहुत ही खुबसूरत...

और फिर इसी भस्म से
एक नया जन्म होता है...!
नितांत अपना.....!!

Suresh kumar ने कहा…

शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,...बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति..

विभूति" ने कहा…

बहुत ही सुन्दर.....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जीवन सुलगते रहने पर अपनी आग में भस्म होना ही पड़ता है ... भावमय रचना ...

SAJAN.AAWARA ने कहा…

bahut hi umda lekin dard bhari rachna

SAJAN.AAWARA ने कहा…

jai hind jai bharat
happy dashra

Parul kanani ने कहा…

aapne vedna ko sajeev sa kar diya!