भस्म होती हूँ
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अक्सर सोचकर हत्प्रभ हो जाती हूँ
चूड़ियों की खनक हाथों से निकल चेहरे तक
कैसे पहुँच जाती है?
झुलसता मन अपना रंग झाड़कर
कैसे दमकने लगता है?
शायद वक़्त का हाथ मेरे बदन में घुसकर
मुझसे बग़ावत करता है
मैं अनचाहे हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर अपने जिस्म से लिपट
अपनी ही आग में भस्म होती हूँ।
- जेन्नी शबनम (1. 9. 2011)
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अक्सर सोचकर हत्प्रभ हो जाती हूँ
चूड़ियों की खनक हाथों से निकल चेहरे तक
कैसे पहुँच जाती है?
झुलसता मन अपना रंग झाड़कर
कैसे दमकने लगता है?
शायद वक़्त का हाथ मेरे बदन में घुसकर
मुझसे बग़ावत करता है
मैं अनचाहे हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर अपने जिस्म से लिपट
अपनी ही आग में भस्म होती हूँ।
- जेन्नी शबनम (1. 9. 2011)
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14 टिप्पणियां:
बेहद दर्दभरी प्रस्तुति।
अपने जिस्म से लिपट
अपनी हीं आग में भस्म
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
बहुत बहुत बधाई ||
itna dard kyon??
जेनी शबनम जी आपकी कविताओं के भाव इतने विविध आयाम वाले होते हैं कि आपकी कविता के लिए कोई एक तेवर का नाम देना कठिन है ।।'भस्म होती हूँ मैं कविता मन के कई द्वार एक साथ खोलती है ।सारे भ्हव एक दूसरे में मोतियों की तरह अनुस्यूत होते हैं।; जिन्हें लिखा नहीं जा सकता , महसूस किया जा सकता है और अन्त में बचती है एक छटपटाहट ! ये पंक्तियाँ ऐसी ही हैं- शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,
मैं अनचाहे
हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर
अपने जिस्म से लिपट
अपनी हीं आग में भस्म होती हूँ!
ek ankahi bechaini...
शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
bahut sunder likhtin hain aap.....
"शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,
मैं अनचाहे
हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर
अपने जिस्म से लिपट
अपनी हीं आग में भस्म होती हूँ!"
बहुत ही खुबसूरत...
और फिर इसी भस्म से
एक नया जन्म होता है...!
नितांत अपना.....!!
शायद वक़्त का हाथ
मेरे बदन में
घुस कर
मुझसे बगावत करता है,...बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति..
बहुत ही सुन्दर.....
जीवन सुलगते रहने पर अपनी आग में भस्म होना ही पड़ता है ... भावमय रचना ...
bahut hi umda lekin dard bhari rachna
jai hind jai bharat
happy dashra
aapne vedna ko sajeev sa kar diya!
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