मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

606. आँख (आँख पर 20 हाइकु) पुस्तक - 103-105

आँख    

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1.   
पट खोलती   
दुनिया निहारती   
आँखें झरोखा।   

2.   
आँखों की भाषा   
गर समझ सको   
मन को जानो।   

3.   
गहरी झील   
आँखों में है बसती   
उतरो ज़रा।   

4.   
आँखों का नाता   
जोड़ता है गहरा   
मन से नाता।   

5.   
आँख का पानी   
मरता व गिरता   
भेद समझो।   

6.   
बड़ी लजाती   
अँखियाँ भोली-भाली   
मीत को देख।   

7.   
शर्म व हया   
आँखें करती बयाँ   
उनकी भाषा।   

8.   
नन्ही आँखों में   
विस्तृत जग सारा   
सब समाया।   

9.   
ख़ूब देखती   
सुन्दर-सा संसार   
आँखें दुनिया।   

10.   
छल को देख   
होती हैं शर्मसार   
आँखें क्रोधित।   

11.   
ख़ूब पालती   
मनचाहे सपने   
दुलारी आँखें।   

12.   
स्वप्न छिपाती   
कितनी है गहरी   
नैनों की झील।   

13.   
बिना उसके   
अँधियारा पसरा   
अँखिया ज्योति।   

14.   
जीभर देखो   
रंग बिरंगा रूप   
आँखें दर्पण।   

15.   
मूँदी जो आँखें   
जग हुआ ओझल   
साथ है स्वप्न।   

16.   
जीवन ख़त्म    
संसार से विदाई   
अँखियाँ बंद।   

17.   
आँख में पानी   
बड़ा गहरा भेद   
आँख का पानी।   

18.   
भेद छुपाते 
सुख-दुःख के साथी 
नैना हमारे।   

19.   
मन की भाषा   
पहचाने अँखियाँ   
दिखाती आशा।   

20.   
आँखियाँ मूंदी   
दिख रहा अतीत   
मन है शांत।   

- जेन्नी शबनम (19. 2. 2019)   
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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

605. बसन्त (क्षणिका)

बसन्त   

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मेरा जीवन मेरा बंधु   
फिर भी निभ नहीं पाता बंधुत्व   
किसकी चाकरी करता नित दिन   
छुट गया मेरा निजत्व   
आस उल्लास दोनों बिछुड़े   
हाय! जीवन का ये कैसा बसंत।  

- जेन्नी शबनम (12. 2. 2019)
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शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

604. काला जादू (पुस्तक-96)

काला जादू   

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जब भी, दिल खोलकर हँसती हूँ   
जब भी, दिल खोलकर जीती हूँ   
जब भी, मोहब्बत के आग़ोश में साँसें भरती हूँ   
जब भी, संसार की सुन्दरता को, दामन में समेटती हूँ   
न जाने कब, मैं ख़ुद को नज़र लगा देती हूँ   
मुझे मेरी ही नज़र लग जाती है   
हँसना, जीना, अचानक गुम हो जाता है   
मुहब्बत के आसमान से, ज़मीन पर, पटक दी जाती हूँ   
जिन फूलों को थामे थी, उनमें काँटें उग जाते हैं   
और मेरी ऊँगलियाँ ही नहीं   
तक़दीर की लकीरें भी, लहूलुहान हो जाती हैं   
दौड़ती हूँ, भागती हूँ, छटपटाती हूँ   
चौकन्ना होकर, चारों तरफ़ निहारती हूँ   
मैंने किसी का, कुछ भी तो न छीना, न बिगाड़ा   
फिर मेरे जीवन में, रेगिस्तान कहाँ से पनप जाता है   
कैसे आँखों में, आँसू की जगह, रक्त-धार बहने लगती है   
कौन पलट देता है, मेरी क़िस्मत    
कौन है, जो काला जादू करता है   
कोई तो इतना अपना नहीं, किसी से कोई रंजिश भी नहीं   
फिर यह सब कैसे?   
हाँ! शायद मुझे मेरी ही नज़र लग जाती है   
मैंने ही ख़ुद पर काला जादू किया है   
अल्लाह! कोई इल्म बता   
कोई कारामात कर दे   
मिटने से पहले चाहती हूँ   
हँसना, जीना, मुहब्बत   
बस एक बार   
बस एक बार।     

- जेन्नी शबनम (2. 2. 2019)
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