शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

83. किसी कोख में नहीं जाऊँगी माँ

किसी कोख में नहीं जाऊँगी माँ

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अब तक न जाने कितने कोख से, जबरन छीनी गई
जीवन जीने की तमन्ना, हर बार, बेबस कुचली गई
जानती हूँ, बस थोड़ी देर हूँ, मैं कोख में तुम्हारी माँ
आज एक बार फिर, बेदर्दी से, मैं मारी जाऊँगी माँ 

माँ, जानती हो, तुम्हारी कोख में पहले भी, मैं ही आई थी
दोनों बार तुम्हारी लाचारी और समाज की क्रूरता भोगी थी
ज़िद थी, तुम्हारी कोख से जन्म लूँ, इसलिए आती थी
शायद तुम्हारी तरह मैं भी सुन्दर बनाना चाहती थी  

माँ, जानती हो, इस घर में तुमसे भी पहले, मैं आना चाहती थी
किसी दूसरी माँ के गर्भ में समा, इस घर में पनाह चाहती थी
बाबा की बुज़दिली और धर्म-परम्परा के नाम पर, बलि चढ़ी थी
उस बिनब्याही कलंकित माँ के साथ, मैं भी तो, जलकर मरी थी 

माँ, देखो न, बाबा की वही कायरता, वही पौरुष-दम्भ
मैं क़त्ल होऊँगी और तुम एक बार फिर होगी गाभिन
सात फेरों के बाद भी, तुम्हारा अवलम्ब बन न सके बाबा
अपनी माँ बहन है प्रिय उन्हें, पर तुम और मैं क्यों नहीं माँ?

माँ, तुम्हें जलाया नहीं, न निष्कासित किया है
शायद तुम्हारे बाबा का धन, तुम्हें जीवित रखता है
तुम्हारी कोख बाँझ नहीं, पुत्र की गुंजाइश बची है
शायद इसलिए तुम्हारी क़िस्मत, पूरी रूठी नहीं है  

माँ, तुम भी तो कितना सहती रही हो
औरत होने का, ख़ामियाज़ा भुगतती रही हो
दहेज तो पूरा लाई, पर वंश-वृक्ष उगा नहीं पाई
हर फ़र्ज़ निभाती रही, एक ये धर्म निभा नहीं पाई  

माँ, अभिमन्यु ने पूरी कोख से, पाया था अधूरा ज्ञान
मैं अधूरी कोख से पा गई, इस दुनिया का पूरा ज्ञान
दो महीने में वो सब देख आई, जो औरत सहती है
दोष किसी और का, वो अग्नि-परिक्षा देती रहती है 

माँ, तुम्हारी तरह अपराधी बन, मैं जीना नहीं चाहती
तुम्हारी कोख में आकर, तुम्हें मैं खोना नहीं चाहती
अब तुम्हारी कोख में, मैं कभी नहीं आऊँगी माँ
अब किसी की कोख में, मैं कभी नहीं जाऊँगी माँ  

- जेन्नी शबनम (09. 09. 09)
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