इकिगाई
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ज़िन्दगी चल रही थी, जिधर राह मिली मुड़ रही थी
कहाँ जाना है क्या पाना है, कुछ भी करके बस जीना है
न कोई पड़ाव न कोई मंज़िल, वक़्त के साथ मैं गुज़र रही थी।
ज़िन्दगी घिसट रही थी, या यूँ कि मैं धकेल रही थी
पर जब-जब मन भारी हुआ, जब-जब रास्ता बोझिल लगा
अन्तर्मन में हूक उठी, और पन्नों पर हर्फ़ पिरोती रही
जो किसी से न कहा लिखती रही।
सदियों बाद जाने कैसे उसका एक पन्ना उड़ गया
जा पहुँचा वहाँ, जहाँ किसी ने उसे पढ़ा
उसने रोककर मुझे कहा-
अरे यही तो तुम्हारी राह थी
जिसपर तुम छुप-छुपकर रुक रही थी
इसलिए तुम बढ़ी नहीं
जहाँ से शुरू की, वहीं पर तुम खड़ी रही
जाओ बढ़ जाओ इस राह पर
पन्नों को बिखरा दो क़ायनात में
कोई झिझक न रखो अपनी बात में।
मैं हतप्रभ, अब तक क्यों न सोचा
मेरे लिए यही तो एक रास्ता था
जिसपर चलकर सुकून मिलना था
जीवन को संतुष्टि और सार्थकता का बोध होना था
पर अब समझ गई हूँ
पन्नो पर रची तहरीर
मेरा इकिगाई है।
(इकिगाई- जापानी अवधारणा: मक़सद/जीवन-उद्देश्य)
- जेन्नी शबनम (15. 10. 2020)
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