सब जानते हो तुम...
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तुम्हें याद है
हर शाम क्षितिज पर
जब एक गोल नारंगी फूल टँगे देखती
रोज़ कहती -
ला दो न
और एक दिन तुम वाटर कलर से बड़े से कागज पे
मुस्कुराता सूरज बना हाथों में थमा दिए,
एक रोज़ तुमसे कहा -
आसमान से चाँद-तारे तोड़ के ला दो
प्रेम करने वाले तो कुछ भी करने का दावा करते हैं,
और तुम
आसमानी साड़ी खरीद कर लाये
जिसमें छोटे-छोटे चाँद तारे टँके हुए थे
मानो आसमान मेरे बदन पर उतर आया हो,
और उस दिन तो मैंने हद कर दी
तुमसे कहा -
अभी के अभी आओ
छुट्टी लो भले तनख्वाह कटे
तुम गाड़ी चलाओगे मुझे जाना है
कहीं दूर
बस यूँ ही
बेमकसद
और एक छोटे से ढाबे पे रुक कर
मिट्टी की प्याली में दो-दो कप चाय
और एक-एक कर पाँच गुलाबजामुन चट कर डाली,
कैसे घूर रहा था ढाबे का मालिक !
तुम भी गज़ब हो
क्यों मान लेते हो मेरी हर ज़िद ?
शायद पागल समझते हो न मुझे ?
हाँ, पागल ही तो हूँ
उस रोज़ नाराज़ हो गई
और तुम्हें बता भी दिया कि क्यों नाराज़ हूँ
तुम्हारी बेरुखी
या किसी और के साथ तुम्हारा होना मुझे सहन नहीं,
मुझे मनाना भी तो खूब आता है तुम्हें
नकली सूरज हो या
असली रँग
सब जानते हो तुम !
- जेन्नी शबनम (16. 1. 2016)
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