10 क्षणिकाएँ
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1.
परत
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मेरे मौसम में अब कोई नहीं
न मेरे मिजाज में कोई शामिल है
मेरे मन पर जो एक नरम परत लिपटा था
समय की ताप से पककर
वह अब लोहे का हो गया है।
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2.
यारी
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फूल तो सबको प्रिय, मैंने काँटों से यारी की
इस यारी में लाचारी थी, मेरी नहीं मनमानी थी
नसीब का लेखा जोखा है, सब कुदरत का धोखा है
यह किस्मत की साज़िश है, नहीं कोई गुंजाइश है
काँटों की कलम से चाक-चाक, सीना मेरा छलनी है
दर्द भले पुराना है, लेकिन मेरी कथा बहुत नयी है।
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3.
ज़ख्म
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काँटों ने चुभाकर, जब भी ज़ख्म दिए
एक संतोष-सा मन में ठहर गया
काँटों ने जख्म दिए हैं, तन छलनी हुआ तो क्या हुआ
गर फूलों ने जख्म दिया होता, तो मन छलनी होता
घाव तो भर जाएँगे
मन तो साबुत रहेगा।
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4.
पुल
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ढेरों इल्जामों की तरह एक और
ढेरों कटु वचनों की तरह एक और
फ़र्क नहीं पड़ता अब दुर्भावनाओं से
न ही असर होता है, इल्जामों की इन गिनतियों से
वह जो एक पुल था, हमारे दरम्यान
उसे वक्त ने ढ़हा दिया है।
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5.
चेहरा
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चेहरे तो कई ओढ़े कई उतारे
कब कौन पहना अब याद नहीं
सबसे सच्चा वाला चेहरा
जो गुम हो चुका है, इन चेहरों की भीड़ में
अब कभी नहीं पहन पाऊँगी
पर एक टीस तो उठेगी
जब-जब आईना निहारूँगी।
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6.
बेजान सड़क
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बेजान सड़क में जैसे जान आ जाती है
और मेरे पाँव में पहिया पहना देती है
फिर मुझे पहुँचा आती है वहाँ-वहाँ
जहाँ भीड़ में मैं अक्सर गुम हो जाती हूँ
फिर कोई अनजाना हाथ मुझे थाम लेता है
मगर कुछ कदम के फ़ासले पर चलता है
सड़क को सब पता है
कहाँ मेरा सुकून है, कहाँ मेरी मंज़िल
और कहाँ थामने वाले हाथ।
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7.
समय चक्र
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समय चक्र और जीवन चक्र
दोनों घूम रहे हैं
उन्हें रोकने की कोशिशों में
मेरे दोनों हाथ छिल चुके हैं
मैं उन्हें न रोक पाई न साथ चल पाई
सदा नाकाम रही
उसी तरह जिस तरह
खुद को अपने साथ रखने में नाकाम होती हूँ
मुझे खुद नहीं पता कि मैं कहाँ होती हूँ।
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8.
तस्वीर
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काश कि अतीत विस्मृत हो जाए
ज़ेहन में तस्वीर कुछ ताज़ी आ जाए
दर्द की ढ़ेरों तहरीर और रिसते ज़ख़्मों के धब्बे हैं
रिश्तों की ग़ुलामी और अनजीए पहलू की सरगोशी है
सब बिसरा कर नई तस्वीर बसाना चाहती हूँ
कुछ नए फूल खिलाना चाहती हूँ
एक नई ज़िन्दगी जीना चाहती हूँ।
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9.
जुर्रत
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लुंज पुंज से वक्त में, जिंदगी की अफरा तफरी में
इश्क करने की मोहलत मिल गई
समय संजीदा हुआ, पूछा - ऐसी जुर्रत क्यों की?
अब इसका क्या जवाब
जुर्रत तो हो गई
अब हो गई तो हो गई।
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10.
दवा-दुआ
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उम्र के इस दौर में, तन्हाइयों के इस ठौर में
न दवा काम आती है न दुआ काम आती है
बस किसी अपने की यादें साथ रह जाती हैं
यूँ सच है खोखले रिश्तों के बेजान शहर में
कौन किसके वास्ते दुआ करे, करे तो क्यों करे
कोई किसी को अपना मान ले
आख़िरी पलों में बस इतना ही काफी है।
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- जेन्नी शबनम (8. 4. 2020)
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