ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं
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चलते-चलते मैं चलती रही, ज़िन्दगी कभी ठहरी नहीं
ख़ुद को जब रोक के देखा, ज़िन्दगी तो बढ़ी ही नहीं।
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चलते-चलते मैं चलती रही, ज़िन्दगी कभी ठहरी नहीं
ख़ुद को जब रोक के देखा, ज़िन्दगी तो बढ़ी ही नहीं।
क़िस्मत को कैसा रोग लगा, ज़िन्दगी कभी हँसती नहीं
वक़्त ने कैसा ज़ख़्म दिया, ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं।
कई भ्रम पाले जीने के वास्ते, ज़िन्दगी भ्रम से गुज़रती नहीं
रोज़-रोज़ तड़पती है, ज़िन्दगी चाहती मगर मरती नहीं।
थक-थक गई चल-चलकर, ज़िन्दगी चलती पर बढ़ती नहीं
दम टूट-टूट जाता है मगर, ज़िन्दगी हारती पर मरती नहीं।
क्यों न करूँ सवाल तुझसे ख़ुदा, ज़िन्दगी क्या सिर्फ़ मेरी नहीं?
'शब' मग़रूर बेवफ़ा ही सही, ज़िन्दगी क्या सिर्फ़ उसकी नहीं?
- जेन्नी शबनम (23. 9. 2011)
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