गुरुवार, 30 जनवरी 2014

440. तेज़ाब की नदी (पुस्तक 102)

तेज़ाब की नदी

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मैं तेज़ाब की एक नदी हूँ 
पल-पल में सौ-सौ बार 
ख़ुद ही जली हूँ
अपनी आँखों से, अनवरत बहती हुई
अपना ही लहू पीती हूँ 
जब-जब मेरी लहरें उफनकर 
निर्बाध बहती हैं 
मैं तड़पकर, सागर की बाहों में समाती हूँ 
फूल और मिट्टी, डर से काँपते हैं 
कहीं जला न दूँ, दुआ माँगते हैं 
मेरे अट्टहास से दसो दिशाएँ चौकन्नी रहती हैं   
तेज़ाब क्या जाने 
उत्तर में देवता होते हैं
आसमान में स्वर्ग है 
धरती के बहुत नीचे नरक है 
तेज़ाब को अपने रहस्य मालूम नहीं 
बस इतना मालूम है 
जहाँ-जहाँ से गुज़रना है, राख कर देना है
अकसर, चिंगारियों से खेलती हुई 
मैं ख़ुद को भी नहीं रोक पाती हूँ  
अथाह जल, मुझे निगल जाता है 
मेरी लहरों के दीवाने 
तबाही का मंज़र देखते हैं 
और मेरी लहरें 
न हिसाब माँगती है 
न हिसाब देती है। 

- जेन्नी शबनम (30. 1. 2014)
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