तेज़ाब की नदी...
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मैं तेज़ाब की
एक नदी हूँ
पल-पल में
सौ-सौ बार
खुद ही जली हूँ
अपनी आँखों से
अनवरत बहती हुई
अपना ही लहू पीती हूँ
जब-जब मेरी लहरें उफन कर
निर्बाध बहती हैं
मैं तड़प कर
सागर की बाहों में समाती हूँ
फूल और मिट्टी
डर से काँपते हैं
कहीं जला न दूँ
दुआ माँगते हैं
मेरे अट्टहास से
दसो दिशाएँ चौकन्नी रहती है
तेज़ाब क्या जाने
उत्तर में देवता होते हैं
आसमान में स्वर्ग है
धरती के बहुत नीचे नरक है
तेज़ाब को अपने रहस्य मालूम नहीं
बस इतना मालूम है
जहाँ-जहाँ से गुजरना है
राख कर देना है
अकसर
चिंगारियों से खेलती हुई
मैं खुद को भी नहीं रोक पाती हूँ
अथाह जल
मुझे निगल जाता है
मेरी लहरों के दीवाने
तबाही का मंजर देखते हैं
और मेरी लहरें
न हिसाब माँगती है
न हिसाब देती है !
- जेन्नी शबनम (30. 1. 2014)
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