लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त...
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लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए, मेरा ख़त ।
मेरी स्याही मेरे ज़ख्मों से रिसती है
जिससे तुम्हारे मन पे मैंने तहरीर रची है ।
हर ज़ज्बात मेरे, कुछ एहसास-ए-बयाँ करते हैं
ज़माना ना समझे, इसीलिए तो तुम्हीं से कहते हैं ।
तुम्हारी नज़रें हर हर्फ़ में ख़ुद को तलाश रही है
यकीन है, मेरी हर इबारत तुमसे कुछ कह रही है ।
जब कभी मेरे ख़त ना पहुँचे, आँखें नम कर लेना
शायद अब निजात मिली मुझे, सब्र तुम कर लेना ।
समझना, मेरी रूह को जमानत मिल गई
ख़ुदा से रहम और रिहाई की मंजूरी, मुझे मिल गई ।
मेरे तुम्हारे बीच मेरे ख़त ही तो, सिर्फ़ एक ज़रिया है
मैं ना रही अब, ये बताने का बस यही, एक ज़रिया है ।
चाहे जितने तुम पाषाण बनो, थोड़ा तुम्हें भी रुलाना है
नहीं आऊँगी फिर कभी, जश्न मुझे भी तो मनाना है ।
मैं फिर भी रोज़ एक ख़त लिखूँगी
चाहे जैसे भी हो तुम तक पहुँचा दूँगी ।
ये एक नयी आदत तुम पाल लेना
हवाओं में तैरती मेरी पुकार तुम सुन लेना ।
ठंडी बयार जब चुपके से कानों को सहलाए
समझना मैंने तुम्हें अपने ख़त सुनाए ।
मेरे हर गुज़रे लम्हे और ख़त अपने सीने में दफ़न कर लेना
सफ़र पूरा कर जब तुम आओ, मुझे उन ख़तों से पहचान लेना ।
कभी ख़त जो न लिख पाऊँ, ताकीद तुम करना नहीं
मान लेना पुराना ज़ख्म पिघला नहीं
और नया ज़ख्म अभी जमा नहीं ।
लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए मेरा ख़त !
- जेन्नी शबनम (सितम्बर 16, 2008)
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लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए, मेरा ख़त ।
मेरी स्याही मेरे ज़ख्मों से रिसती है
जिससे तुम्हारे मन पे मैंने तहरीर रची है ।
हर ज़ज्बात मेरे, कुछ एहसास-ए-बयाँ करते हैं
ज़माना ना समझे, इसीलिए तो तुम्हीं से कहते हैं ।
तुम्हारी नज़रें हर हर्फ़ में ख़ुद को तलाश रही है
यकीन है, मेरी हर इबारत तुमसे कुछ कह रही है ।
जब कभी मेरे ख़त ना पहुँचे, आँखें नम कर लेना
शायद अब निजात मिली मुझे, सब्र तुम कर लेना ।
समझना, मेरी रूह को जमानत मिल गई
ख़ुदा से रहम और रिहाई की मंजूरी, मुझे मिल गई ।
मेरे तुम्हारे बीच मेरे ख़त ही तो, सिर्फ़ एक ज़रिया है
मैं ना रही अब, ये बताने का बस यही, एक ज़रिया है ।
चाहे जितने तुम पाषाण बनो, थोड़ा तुम्हें भी रुलाना है
नहीं आऊँगी फिर कभी, जश्न मुझे भी तो मनाना है ।
मैं फिर भी रोज़ एक ख़त लिखूँगी
चाहे जैसे भी हो तुम तक पहुँचा दूँगी ।
ये एक नयी आदत तुम पाल लेना
हवाओं में तैरती मेरी पुकार तुम सुन लेना ।
ठंडी बयार जब चुपके से कानों को सहलाए
समझना मैंने तुम्हें अपने ख़त सुनाए ।
मेरे हर गुज़रे लम्हे और ख़त अपने सीने में दफ़न कर लेना
सफ़र पूरा कर जब तुम आओ, मुझे उन ख़तों से पहचान लेना ।
कभी ख़त जो न लिख पाऊँ, ताकीद तुम करना नहीं
मान लेना पुराना ज़ख्म पिघला नहीं
और नया ज़ख्म अभी जमा नहीं ।
लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए मेरा ख़त !
- जेन्नी शबनम (सितम्बर 16, 2008)
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