बुधवार, 16 नवंबर 2022

754. मेरा पर्स / मेरी ज़िन्दगी (पुस्तक- नवधा)

मेरा पर्स / मेरी ज़िन्दगी  

***

मेरा पर्स मानो भानुमति का पिटारा है
उसमें मेरी ज़रूरत की सभी चीज़ें हैं। 
 
अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में
सब कुछ बेधड़क निकल आता है
मेरी दवाओं से लेकर
बिस्किट-चॉकलेट-पानी
काग़ज़-कलम-रूमाल
और जो काग़ज़ पर 
आज तक उतरे नहीं ऐसी कई ख़याल
कुछ मास्क, सैनिटाइजर, मेट्रो कार्ड
अचानक ख़रीददारी के लिए थैले
हाँ! मुझे क्रेडिट-डेबिट कार्ड का 
इस्तेमाल करना नहीं आता
तो कुछ कैश रुपये जिससे मेरा काम चल जाए
मेरा पहचान पत्र और देह-दान कार्ड भी है
आकस्मिक दुर्घटना के बाद अस्पताल पहुँच सकूँ
देह-दान का कार्ड 
जिसपर दो मोबाइल नम्बर लिखे हुए हैं
ताकि दान प्रक्रिया की अनुमति देने में देर न हो। 

सोचती हूँ कि मेरी ज़रूरतें कितनी कम हैं
कफ़न और साँसें हैं जो मेरे पर्स में नहीं है
बाक़ी जीवन से मृत्यु तक के सफ़र का सामान है। 

पर्स तो बदलती हूँ पर सामान नहीं
इन सामानों के बिना जीना मुश्किल है
और मरना भी आसान नहीं
जाने कब ज़रूरत पड़ जाए
मेरे पर्स में मेरी ज़िन्दगी पड़ी है
और मृत्यु के बाद की मेरी इच्छा भी। 

-जेन्नी शबनम (16. 11. 2022)
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शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

753. ज़िन्दगी नहीं है (तुकान्त)

ज़िन्दगी नहीं है 

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बहुत कुछ था जो अब नहीं है   
कुछ है पर ज़िन्दगी नहीं है।
   
कश्मकश में उलझकर क्या कहें   
जो कुछ भी था अब नहीं है। 
  
हयात-ए-सफ़र पर चर्चा क्या   
कहने को बचा अब कुछ नहीं है। 
  
फ़िसलते नातों का ये दौर   
ख़तम होता अब क्यों नहीं है। 
  
रह-रहकर पुकारता है मन   
सब है पर अपना कोई नहीं है। 
  
'शब' की बातें कच्ची-पक्की   
ज़िन्दा है पर ज़िन्दगी नहीं है। 

- जेन्नी शबनम (11. 11. 22)
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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

752. सपने हों पूरे / गर तू आ जाता (6 माहिया)

सपने हों पूरे

***


1.
मन में जो आस खिली 
जीवन में मेरे 
अब जाकर प्रीत मिली। 
 
2.
थी अभिलाषा ये मन में 
सपने हों पूरे 
सारे इस जीवन में।  

- जेन्नी शबनम (10. 7. 2013)
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गर तू आ जाता 
*** 

1.
पानी बहता जैसे 
बिन जाने समझे 
जीवन गुज़रा वैसे। 

2.
फूलों-सी खिल जाती 
गर तू आ जाता 
तुझमें मैं मिल जाती। 

3.
अजब यह कहानी है 
बैरी दुनिया से 
पहचान पुरानी है। 

4.
सुख का सूरज चमका 
आशाएँ जागी 
मन का दर्पण दमका। 

- जेन्नी शबनम (30. 1. 2014)
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रविवार, 2 अक्तूबर 2022

751. चौथा बन्दर (पुस्तक- नवधा)

चौथा बन्दर

*** 

बापू के तीनों बन्दर   
सालों-साल मुझमें जीते रहे   
मेरे आँसू तो नहीं माँगे   
मेरा लहू पीते रहे   
फिर भी मैंने उनका अनुकरण-अनुसरण किया। 
   
अब वे फुदक-फुदककर   
बाहर आने को व्याकुल रहते हैं   
जब से मुझे बुरा दिखने लगा बुरा सुनाई देने लगा   
और फिर मैंने बुरा बोलना सीख लिया   
पर मैंने उन्हें जकड़ रखा है ज़ेहन में   
आज़ादी न मिलेगी उन्हें।   

ये तीनों घमासान मचाए हुए हैं   
परन्तु अब वह ज़माना न रहा   
जब चुपचाप सब सहा जाए   
बुरा देखा जाए, सुना जाए, न कहा जाए। 
  
अब तो मैंने एक और बन्दर को पाल लिया है   
जो इन तीनों को दबोचकर रखता है   
और जैसे को तैसा का आदेश देता है। 
  
फिर कहीं से बापू की आवाज़ गूँजती है-   
ऐसे तो कभी समाधान न होगा   
पर बात जब हद से बाहर हो जाए   
तो चौथे बन्दर को बाहर लाओ।
   
इन दिनों चौथे बन्दर को बाहर आने के लिए   
आह्वान कर रही हूँ   
अब मैं कम डर रही हूँ।   

-जेन्नी शबनम (2. 10. 2022) 
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शनिवार, 24 सितंबर 2022

750. मृत्यु सत्य है (मृत्यु पर 50 हाइकु)

मृत्यु सत्य है
(मृत्यु पर 50 हाइकु)

******* 

1. 
मृत्यु सत्य है   
बेख़बर नहीं हैं     
दिल रोता है।   

2. 
शाश्वत आत्मा   
अपनों का बिछोह   
रोती है आत्मा।   

3. 
काम न आता   
काल जब आ जाता   
अकूत धन।   

4. 
यम कठोर   
आँसू से न पिघला,   
माँ-बाबा मृत।   

5. 
समय पूर्ण,   
मनौती है निष्फल,   
यम का धर्म।   

6. 
यम न माना   
करबद्ध निहोरा   
जीवन छीना।   

7. 
हारा मानव,   
छीन ले गया प्राण   
यम दानव।

8.
आ धमकता
न चिट्ठी न सन्देश 
यम अतिथि।   

9. 
मौत का खेला   
कोरोना फिर खेला   
तीसरा साल।   

10. 
मन बेकल   
जाने कौन बिछड़े   
कोरोना काल।   

11. 
यमदूत-सा,   
कोरोना प्राण लेता   
बहुत डराता।   

12. 
कोहराम है   
कोरोना के सामने   
सब लाचार।   

13. 
थमता नहीं   
कोरोना का क़हर   
श्मसान रोता।   

14. 
मालिक प्राण   
जब चाहे छीन ले   
देह ग़ुलाम।   

15. 
मृत्यु का पल   
अब समझ आया   
जीवन माया।   

16. 
लेकर जाती   
वैतरणी के पार,   
मृत्यु है यार।   

17. 
पितृलोक है   
शायद उस पार,   
सुख-संसार।   

18. 
दुःख अपार   
मिलता आजीवन,   
निर्वाण तक।   

19. 
धम्म से आई   
लेकर माँ का प्राण   
मौत है भागी।   

20. 
बिना जिरह   
मौत की अदालत   
मौत की सज़ा।   

21. 
वक़्त के पास   
अवसान के वक़्त   
नहीं है वक़्त।   

22. 
मौत बेदर्द   
ज़रा देर न रुकी,   
अम्मा निष्प्राण।   

23. 
आस का दीया   
सदा के लिए बुझा,   
मौत की आँधी।   

24. 
निर्दय मौत   
छीन ले गई प्राण   
थे अनजान।   

25. 
मृत्यु का खेल,   
ज़रा न संवेदना   
है विडम्बना।   

26. 
ज़रा न दर्द   
मौत बड़ी बेदर्द   
हँसी निर्लज।   

27. 
ताक़त दिखा   
मौत मुस्कराकर   
प्राण हरती।   

28. 
माँ को ले गई   
डरा धमकाकर   
मौत निष्ठुर।   

29. 
पितृधाम में   
मृत्यु है पहुँचाती,   
मृत्यु-रथ से।   

30. 
मौत ने छीने   
हमारे अपनों को,   
हृदय ज़ख़्मी।   

31. 
खींच ले चलो,   
यम का फरमान   
जिसको चाहे।   

32. 
रूला-रूलाके   
तमाशा है दिखाती   
मौत नर्तकी।   

33. 
बच्चे चीखते   
हृदय विदारक,   
मौत हँसती।   

34. 
लिप्सा अनन्त   
क्षणभंगुर प्राण   
लोभी मानव।   

35. 
आ धमकती   
मग़रूर है मौत   
साँसें छीनती।   

36. 
निगल गई   
मौत फिर भी भूखी   
हज़ारों प्राण।   

37. 
सब भकोसा   
आदमी और पैसा   
भूखा कोरोना।   

38. 
मृत्यु की जीत   
जीवन-मृत्यु खेल,   
शाश्वत सत्य।   

39. 
मौत का यान   
जबरन उठाकर   
फुर्र से पार।   

40. 
सहमी फिज़ा   
ठिठकी देख रही,   
मौत का जश्न।   

41. 
स्थायी बसेरा,   
किराए का संसार   
मृत्यु का घर।   

42. 
हज़ारों मौत   
असामयिक मौत,   
ख़ून के आँसू।   

43. 
देख संसार   
मौत बना व्यापार   
बेबस काल।   

44. 
होते विलीन   
अपने या पराये,   
मौत से हारे।   

45. 
सन्देश, डरी   
दिल है दहलाती   
मौत की पाती।   

46. 
मौत-कटार   
दिल जिसपे आए   
करती वार।   

47. 
निष्प्राण प्राणी   
मौत से कैसे लड़े   
साँसों के बिन।   

48. 
क्रूर नियति   
मज़ाक है उड़ाती   
मौत की साथी।   

49. 
ख़ून ही ख़ून   
मौत है नरभक्षी,   
किसकी बारी।   

50. 
असह्य व्यथा   
सबने है समझा,   
मौत निर्बुद्धी।   

- जेन्नी शबनम (24. 9. 2022)

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बुधवार, 14 सितंबर 2022

749. हमारी मातृभाषा (6 हाइकु)

हमारी मातृभाषा 

(6 हाइकु)
******* 

1. 
बिलखती है,   
बेचारी मातृभाषा   
पा अपमान।  

2. 
हमारी भाषा   
बनी जो राजभाषा   
है मातृभाषा।  

3. 
अपनी भाषा   
नौनिहाल बिसरे,   
हिन्दी पुकारे।  

4. 
रुलाते सभी   
फिर भी है हँसती   
हमारी हिन्दी।  

5. 
अपनों द्वारा   
होती अपमानित   
हिन्दी शापित।  

6. 
हिन्दी कहती-   
तितली-सी उड़ूँगी   
नहीं हारूँगी।  

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2022)
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रविवार, 11 सितंबर 2022

748. हे गंगा माई (ताँका) (बज्जिका भाषा)

हे गंगा माई 
(ताँका)
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1. 
हे गंगा माई   
केहू नहीं हमर   
कौना से कहू   
सुख-दुःख अपन   
कैसे कटे सफर।   

2. 
हे गंगा माई   
मन बड़ा बिकल   
देख के छल   
छुपा ल दुनिया से   
कोख में अपन।   

3. 
हे गंगा माई   
हमर पुरखा के   
तू समा लेलू   
समा ल हमरो के   
तोरे जौरे बहब।   

4. 
तू ही ले गेलू   
हमर बाबू-माई   
भेंट करा द   
निहोरा करई छी   
दया कर हे माई।   

5. 
पाप धोअ लू   
पुन सबके दे लू   
देख दुनिया   
गन्दा कर देलई   
कइसन हो गेलू।   

-  जेन्नी शबनम (24. 8. 2022)
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सोमवार, 15 अगस्त 2022

747. आज़ादी का अमृत महोत्सव (पुस्तक- नवधा)

आज़ादी का अमृत महोत्सव 

*** 

नहीं चलना ऐसे   
जब किसी की परछाईं पीछा करे   
नहीं देखना उसे   
जो तुम्हारी नज़रों की तलाश को ख़ुद तक रोके   
नहीं सुनना उसे   
जो तुम्हारी न सुने सिर्फ़ अपनी कहे   
नहीं निभाना साथ उसके   
जिसका फ़रेब तुम्हें सताता रहे   
नहीं करना प्रेम उससे   
जो बदले में तुम्हारी आज़ादी छीने   
नहीं उलझना उससे जो साँसों की पहरेदारी करे   
आज़ादी की बात कर साँसें लेना मुहाल करे। 
  
ज़िन्दगी एक बार ही मिलती है   
आज़ादी बड़े-बड़े संघर्षों से मिलती है   
ठोकर मारकर शातिरों को   
जीवन का जश्न जीभरकर मनाओ   
अपनी धरती, अपना आसमाँ, अपना जहाँ   
बेबाक बनकर आज़ादी का लुत्फ़ उठाओ। 
  
आज़ादी की साँसें दिल से दिल तक हो   
आज़ादी की बातें मन से मन तक हो   
जीकर देखो कि कितनी मिली आज़ादी   
किससे कब-कब मिली आज़ादी   
लेनी नहीं है भीख में आज़ादी   
हक़ है, जबरन छीननी है आज़ादी।
   
आज़ादी का यह अमृत महोत्सव   
सबके लिए है तो तुम्हारे लिए भी है। 

-जेन्नी शबनम (15. 8. 22) 
(स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगाँठ पर) 
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गुरुवार, 4 अगस्त 2022

746. चिन्तन (12 क्षणिका)

चिन्तन 
*******

1. चिन्तन 

समय, सच और स्वप्न
आपस में सब गड्डमड्ड हो रहे हैं
भूल रही हूँ, समय के किस पहर में हूँ
कब यथार्थ, कब स्वप्न में हूँ
यह मतिभ्रम है या चिन्तन की अवस्था
या दूसरे सफ़र की तैयारी 
यह समय पर जीत है 
या समय से मैं हारी। 


2. दोबारा  

दोबारा क्यों?
इस जन्म की पीर
क्या चौरासी लाख तक साथ रहेगी?
नहीं, अब दोबारा कुछ नहीं चाहिए 
न सुख, न दु:ख, न जन्म
स्वर्ग क्या नरक भी मंज़ूर है
पर धरती का सहारा नहीं चाहिए
जन्म दोबारा नहीं चाहिए। 


3. कोशिशों की मियाद
 
ज़िन्दगी की मियाद है  
तय वक़्त तक जीने की   
सम्पूर्णता की मियाद है   
ख़ास वक़्त के बाद पूर्ण होने की   
वैसे ही कोशिशों की मियाद भी लाज़िमी है   
कि किस हद के बाद छोड़ दी जाए वक़्त पर   
और बस अपनी ज़िन्दगी जी जाए।    
वर्ना तमाम उम्र 
महज़ कोशिशों के नाम।


4. कमाल 

दर्द से दिल मेरा दरका
काग़ज़ पर हर दर्द उतरा
वे समझे, है व्यथा ज़माने की
और लिखा मैंने कोई गीत नया,
कह पड़े वे- वाह! कमाल लिखा!


5. सहारा 

चुप-चुप चुप-चुप सबने सुना
रुनझुन-रुनझुन जब दर्द गूँजा
बस एक तू ही असंवेदी 
करता सब अनसुना
क्या करूँ तुझसे कुछ माँगकर
मेरे हाथ की लकीरों में तूने ही तो दर्द है उतारा,
मुझे तो उसका भी सहारा नहीं
लोग कहते क़िस्मत का सहारा है।  


6. नाराज़ 

ताउम्र गुहार लगाती रही
पर समय नाराज़ ही रहा 
और अंतत: चला गया
साथ मेरी उम्र ले गया
अब मेरे पास न समय बचा
न उसके सुधरने की आस, न ज़िन्दगी। 


7. मुँहज़ोर तक़दीर 

हाथ की लकीरों को
ज़माना पढ़ता रहा हँसता रहा
कितना बीता, कितना बचा?
कितना ज़ख़्म और हाथेली में समाएगा?
यह मुँहज़ोर तक़दीर, न बताती है न सुनती है
हर पल मेरी हथेली में, एक नया दर्द मढ़ती है।  


8. महाप्रयाण 

अतियों से उलझते-उलझते   
सर्वत्र जीवन में संतुलन लाते-लाते 
थकी ही नहीं, ऊबकर हार चुकी हूँ, 
ख़ुद को बचाने के सारे प्रयास 
पूर्णतः विफल हो चुके हैं  
संतुलन डगमगा गया है,  
सोचती हूँ राह जब न हो तो 
गुमराह होना ही उचित है, 
बेहतर है ख़ुद को निष्प्राण कर लूँ 
शायद महाप्रयाण का यही सुलभ मार्ग है। 


9. फ़िल्म 

जीवन फ़िल्मों का ढेर है 
अच्छी-बुरी सुखान्त-दुखान्त सब है 
पुरानी फ़िल्म को बार-बार देखना से 
मन में टीस बढ़ाती है
काश! ऐसा न हुआ होता 
ज़िन्दगी सपाट ढर्रे से गुज़र जाती 
कोई न बिछुड़ता जीवन से 
जिनकी यादों में आँखें पुर-नम रहती हैं।  
फ़िल्में देखो पर जीवन का स्वागत यूँ करो  
मानो पुर-सुकून हो। 


10. साथ   

इतना हँसती हूँ, इतना नाचती हूँ
ज़िन्दगी समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ
बार-बार वह मुझे शिकस्त देना चाहती है
पर हर बार मेरी हँसी से मात खा जाती है
अब ज़िन्दगी हैरान है, परेशान है
मुझसे छीना-झपटी भी नहीं करती
कर जोड़े मेरे इशारे पर चलती है
मेरी ज़िन्दगी मेरे साथ जीती है।  


11. मौसम के देवता

ओ मौसम के देवता!
मेरी मुट्ठी में सिर्फ़ पतझड़!
कभी वसन्त भेजो कभी वर्षा  
कभी शरत भेजो कभी हेमन्त  
हमेशा पतझड़ ही क्यों?
एक ही मौसम से जी भर गया है
ओ मौसम के देवता! 
ऐसा क्यों लगता है
मैं अमर हो गई हूँ और मौसम मर गया है।


12. शिद्दत

पतझड़ के मौसम के बीतने की प्रतीक्षा व्यर्थ है
कभी-कभी एक ही मौसम मन में बस जाता है
उम्र और मन ख़र्च हो जाता है 
दिन-महीना-साल बदल जाता है
पर नहीं बदलता, तो यह मुआ पतझड़
जब नाउम्मीदी चारों तरफ़ पसरी हो 
वीरानगी रास्ता रोककर जम जाए वहीं पर 
तब एक ही तरक़ीब शेष बचती है
पतझड़ में मौसम के मनचाहे सारे रंग बसा लो
और जी लो पूरी शिद्दत से जो भी वक़्त बचा है।

- जेन्नी शबनम (12. 12. 21)
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गुरुवार, 28 जुलाई 2022

745. अब्र (6 क्षणिका)

अब्र 

(6 क्षणिका)

******* 

1. अब्र   

ज़माने के हलाहल पीकर   
जलती-पिघलती मेरी आँखों से   
अब्र की नज़रें आ मिली   
न कुछ कहा, न कुछ पूछा   
वह जमकर बरसा, मैं जमकर रोई   
सारे विष धुल गए, सारे पीर बह गए   
मेरी आँखें और अब्र   
एक दूजे की भाषा समझते हैं। 
-0-

2. बादल   

तुम बादल बन जाओ   
जब कहूँ तब बरस जाओ   
तुम बरसो मैं तुमसे लिपटकर भीगूँ   
सारे दर्द को आँसुओं में बहा दूँ   
नहीं चाहती किसी और के सामने रोऊँ,   
मैं मुस्कुराऊँगी, फिर तुम लौट जाना अपने आसमाँ में।
-0-

3. घटा   

चाहती हूँ तुम आओ, आज मन फिर बोझिल है   
घटा घनघोर छा गई, मेरे चाहने से वो आ गई   
घटा प्यार से बरस पड़ी, आकर मुझसे लिपट गई   
तन भीगा मन सूख गया, मन को बड़ा सुकून मिला   
बरसों बाद धड़कनो में शोर हुआ, मन मेरा भाव-विभोर हुआ।
-0-

4. घन   

हे घन! आँखों में अब मत ठहरो   
बात-बे-बात तुम बरस जाते हो   
माना घनघोर उदासी है   
पर मुख पर हँसी ही सुहाती है   
पहर-दिन देखकर, एक दिन बरस जाओ जीभर   
फिर जाकर सुस्ताओ आसमाँ पर।
-0- 

5. मेघ   

अच्छा हुआ तुम आ गए, पर ज़रा ठहरो   
किवाड़ बन्दकर छत पर आती हूँ   
कोई देख न ले मेरी करतूत   
मेघ! तुम बरसना घुमड़-घुमड़   
मैं कूदूँगी छपाक-छपाक,   
यूँ लगता है मानो ये पहला सावन है   
उम्र की साँझ से पहले, बचपन जीने का मन है।
-0-

6. बदली   

उदासी के पाँव में महावर है   
जिसकी निशानी दिख जाती है   
बदली को दिख गई और आकर लिपट गई   
उसे उदासी पसन्द जो नहीं है   
धुलकर अब खिल गई हूँ मैं,   
उदासी के पाँव के महावर फिर गाढ़े हो रहे हैं   
अब अगली बारिश का इन्तिज़ार है।
-0-

- जेन्नी शबनम (28. 7. 2021)
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सोमवार, 4 जुलाई 2022

744. भोर (40 हाइकु)

 भोर 

*******

1.
भोर होते ही
हड़बड़ाके जागी,
धूप आलसी।

2.
आँखें मींचता
भोरे-भोरे सूरज
जगाने आया।

3.
घूमता रहा
सूरज निशाचर
भोर में लौटा।

4.
हाल पूछता
खिड़की से झाँकता,
भोर में सूर्य।

5.
गप्प करने
सूरज उतावला
आता है भोरे।

6.
छटा बिखेरा
सतरंगी सूरज
नदी के संग।

7.
सुहानी भोर
दीपक-सा जलता
नन्हा सूरज।

8.
गंगा मइया
रोज़ भोरे मिलती
सूरज सखा।

9.
भोर की वेला
सूरज की किरणें
लाल जोड़े में।

10.
नदी से पूछी
किरणें लजाकर,
नहाने आऊँ?

11.
किरणें प्यारी
छप-छप नहाती
नदी है टब।

12.
चली किरणें
संसार को जगाने
हुआ बिहान।

13.
तन्हा सूरज
उम्मीद से ताकता
कोई तो बोले।

14.
मन का बच्चा
खेलने को आतुर,
सूरज गेंद।

15.
चिड़िया बोली
तुम सब भी जागो
मैं जग गई।

16.
सोने न देता
भोरे-भोरे जगाता
क्रूर सूरज।

17.
अनिद्रा रोगी 
भोरे-भोरे जागते
सूरज बाबा।

18.
माँ-सी किरणें
दुलार से उठाती
रोज़ सबेरे।

19.
सूरज देव
अँगने में उतरे
फूल खिलाने।

20.
साथ बैठो न,
सूर्य का मनुहार
भोर है भई।

21.
पानी माँगने
गंगा के पास दौड़ा
सूरज प्यासा।

22.
सूरज भाई
बेखटके जगाए
बिना शर्माए।

23.
जल्द भोर हो
सूर्य का इंतिज़ार,
सूरजमुखी। 

24.
साफ़ सुथरा
नदी में नहाकर
सूर्य चमका।

25.
भोर में आता
दिनभर बौराता,
आवारा सूर्य।

26.
ठण्ड की भोर
आराम फ़रमाता
सूर्य कठोर।

27.
गच्चा दे गया
बेईमान सूरज
जाड़े की भोर।

28.
भोरे उठाता
करता मनमानी,
हठी सूरज।

29.
भोर की लाली
गंगा को है रँगती,
सुन्दर चित्र।

30.
नरम धूप
मनुहार करती -
बैठो न साथ।

31.
भोर की रश्मि
ख़ूब प्यार से बोली-
चाय पिलाओ।

32.
सूर्य थकता
रोज़ भोरे उगता
लेता न नागा।

33.
सूर्य भेजता
उठने का संदेश
रश्मि है दूत।

34.
भोर में सूर्य
गंगा-स्नान करता
पुण्य कमाता।

35.
हुआ बिहान
दलान पर सूर्य
तप करता।

36.
सूर्य न आया,
मेघ से डरकर
कहीं है छुपा।

37.
किसने बोला-
जागो, भोर हो गया,
चिड़िया होगी।

38.
धूप के बूटे
खिड़की से आ गिरे,
खिला बिछौना।

39.
भोरे-भोरे ही
चकल्लस को गया
आवारा सूर्य।

40.
भोर ने कहा-
सोने दो देर तक,
इतवार है।

- जेन्नी शबनम (30. 6. 2022)
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शनिवार, 18 जून 2022

743. साढ़े-सात सदी (पुस्तक- नवधा)

साढ़े-सात सदी 

*** 

बाबा जी ने चिन्तित होकर कहा   
शनि की दूसरी साढ़ेसाती चल रही है   
फलाँ ग्रह, इस घर से उस घर को देख रहा है   
फलाँ घर में राहु-केतु बैठा हुआ है   
फलाँ की महादशा, फलाँ की अन्तर्दशा चल रही है   
कोई भी विपत्ति कभी भी आ सकती है   
पर तुम चिन्ता न करो, हम सब ठीक कर देंगे   
कुछ पूजा पाठ करो, थोड़ा दान-दक्षिणा…। 
  
ओह बाबाजी! आप ठीक-ठीक नहीं देख रहे हैं   
मेरी साढ़ेसाती नहीं, साढ़े-सात सदी गुज़र रही है   
शनि महाराज को हम पसन्द हैं न   
सबके जीवन में साढ़े-सात साढ़े-सात करके   
तीन बार ही रहते हैं   
पर मेरे साथ साढ़े-सात सदी से रह रहे हैं   
राहु-केतु पूरी दुनिया को छोड़   
सदियों से मेरे घर में ताका-झाँकी कर रहे हैं। 
   
बाबाजी! ये लीजिए, मेरे लिए कुछ न कीजिए   
जाइए आज आप भी जश्न मनाइए। 
  
पूजा-पाठ दान-दक्षिणा   
साढ़े-छ: सदी तक तो सब किये   
फिर भी यह जीवन...   
अब इस अन्तिम सदी में सब छोड़ दिये हैं   
दूसरी ढइया हो या तीसरी   
अन्तिम साढ़ेसाती हो या अन्तिम सदी   
अब राहु-केतु हों या शनि महाराज   
देखते रहें तिरछी नज़रों से या वक्री नज़रों से   
हमको परवाह नहीं, देखें या न देखें   
देखना हो तो देखें या जाएँ...   
साढ़े-छ: तो बीत गया यूँ ही   
साढ़े-सात सदी अब बीतने को है।   

-जेन्नी शबनम (18. 6. 2022) 
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गुरुवार, 5 मई 2022

742. मन (मन पर 20 हाइकु)

मन  

(मन पर 20 हाइकु) 


1. 
जीवन-मृत्यु   
निरन्तर का खेल   
मन हो, न हो।   

2. 
डटके खड़ा   
गुलमोहर मन   
कोई मौसम।   

3. 
काटता मन   
समय है कुल्हाड़ी   
देता है दुःख।   

4. 
काश! रहता   
वन-सा हरा-भरा   
मन का बाग़।   

5. 
मन हाँकता   
धीमी - मध्यम - तेज़   
साँसों की गाड़ी।   

6. 
मन का रथ   
अविराम चलता   
कँटीला पथ।   

7. 
मन अभागा   
समय है गँवाया   
तब समझा।   

8. 
मन क्या करे?   
पछतावा बहुत   
जीवन ख़त्म।   

9. 
जटिल बड़ा   
साँसों का तानाबाना   
मन है हारा।   

10. 
मन का रोगी   
भेद न समझता   
रोता-रूलाता।   

11. 
हँसे या रोए   
नियति की नज़र   
मन न बचे।   

12. 
पास या फेल   
ज़िन्दगी इम्तिहान   
मन का खेल।   

13. 
मन की कथा   
समय पे बाँचती   
रिश्ते जाँचती।   

14. 
न खोलो मन,   
पराए पाते सुख   
सुन के दुःख।   

15. 
कठोर वाणी   
कृपाण-सी चुभती,   
मन घायल।   

16. 
लौ उम्मीद की   
मन जलता दीया   
जीवन-दीप्त।   

17. 
भौचक मन   
हतप्रभ देखता   
दृश्य के पार।   

18. 
मन का पंछी   
लालायित देखता   
उड़ता पंछी।   

19. 
मन में पीर   
चेहरे पे मुस्कान   
जीवन बीता।   

20. 
अकेला मन   
ख़ुद से बतियाता   
खोलता मन।   

- जेन्नी शबनम (5. 5. 2022)
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शुक्रवार, 18 मार्च 2022

741. दुलारी होली (होली पर 15 हाइकु)

दुलारी होली

******* 

1. 
दे गया दग़ा    
रंगों का ये मौसम,   
मन है कोरा।   

2. 
गुज़रा छू के   
कर अठखेलियाँ   
मौसमी-रंग।   

3. 
होली आई   
मन ने दग़ा किया   
उसे भगाया।   

4. 
दुलारी होली   
मेरे दुःख छुपाई   
देती बधाई।   

5. 
सादा-सा मन   
होली से मिलकर   
बना रंगीला।   

6. 
होलिका-दिन   
होलिका जल मरी   
कमाके पुण्य।   

7. 
फगुआ मन   
जी में उठे हिलोर   
मचाए शोर।   

8. 
छाये उमंग   
खिलखिलाते रंग   
बसन्ती मन।   

9. 
ख़ूब बरसे   
ज्यों दरोगा की लाठी   
रंग-अबीर।   

10. 
बिन रँगे ही   
मन हुआ बसन्ती   
रुत है प्यारी।   

11. 
कैसी ये होली   
रिश्ते नाते छिटके   
अकेला मन।   

12. 
छुपके आई   
कुंडी खटखटाई   
होली भौजाई।   

13. 
माई न बाबू   
मन कैसे हो क़ाबू,   
अबकी होली।   

14. 
अबकी साल   
मन हो गया जोगी,   
लौट जा होली!   

15. 
पी ली है भाँग   
लड़खड़ाती होली   
धप्प से गिरी। 

- जेन्नी शबनम (18. 3. 2022)
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मंगलवार, 8 मार्च 2022

740. एक दिन मुक्ति के नाम (पुस्तक- नवधा)

एक दिन मुक्ति के नाम 

*** 

कभी अधिकार के लिए शुरु हुई लड़ाई   
हमारी ज़ात को ज़रा-सा हक़ दे गई   
बस एक दिन, राहत की साँसें भर लूँ   
ख़ूब गर्व से इठलाऊँ, ख़ूब तनकर चलूँ   
मेरा दिन है, आज बस मेरा ही दिन है   
पर रात से पहले, घर लौट आऊँ।
   
बैनर, पोस्टर, हर जगह छा गई औरत   
लड़की बचाओ, लड़की पढ़ाओ   
लड़की-लड़की, औरत-औरत   
बहन, बेटी, माँ, प्रेमिका अच्छी   
मानो आज देवी बन गई औरत   
रोज़ जो होती थी वह कोई और है   
आज है कोई नयी औरत।
   
एक पूरा दिन करके औरत के नाम   
छीन ली गई सोचने की आज़ादी   
बारह मास की ग़ुलामी   
और बदले में बस एक दिन   
जिसमें समेटना है साल का हर दिन।
   
कभी जीती थी हर बाज़ी   
पर हार गई औरत   
सदियों से लड़ती रही   
पर हार गई औरत!
   
अब किसे लानत भेजी जाए?   
उन गिनी-चुनी औरतों को   
जिनके सफ़र सुहाने थे   
जिनके ज़ख़्मों पर मलहम लगे   
इतिहास के कुछ पन्ने जिनके नाम सजे   
और बाक़ियों को, उन 'कुछ' की एवज़ में   
यह कहकर मानसिक बन्दी बनाया गया-   
तुमने क्रान्ति की, देखो कितनी आज़ाद हो   
कभी किताबें तो पढ़कर देखो   
तुम केवल अक्षरों को याद हो   
लड़कों की तरह तुम्हारी परवरिश होती है   
देखो तुम्हारे हक़ में कितने कानून हैं   
तुम्हें विधान से इतनी ताक़त मिली   
जब चाहे हमें फँसा सकती हो   
तुम्हारे सामने हमारी क्या औक़ात   
हे देवी! हम पुरुषों पर दया करो! 
  
आज महिला दिवस है   
पूरी दुनिया की औरतें जश्न मनाएँगी   
पर यह भी सच है आज के दिन   
कई स्त्रियों की जिस्म लुटेगा, बाज़ार में बिकेगा   
आग और तेज़ाब में जलेगा   
कइयों को माँ की कोख में मार दिया जाएगा   
बैनरों-पोस्टरों के साथ   
स्त्री की काग़ज़ी जीत पर नारा बुलन्द होगा   
छल-प्रपंच का तमाचा   
अन्ततः हमारे ही मुँह पर पड़ेगा।
   
कोई कुतिया कहकर   
बदन नोच-नोचकर खाएगा   
कोई डायन कहकर   
ज़मीन पर पटक-पटककर मार डालेगए   
रंडी बनाकर 
उसका सगा ही कमाई उड़ाएगा   
बेटी जनने वाली पापिन कहकर   
उसका आदमी ही उसे घर से निकालेगा   
या ब्याह दी जाएगी उसके साथ   
जो रोज़ जबरन भोगेगा   
या ज़ेवरों से लादकर आजीवन हुक़्म चलाएगा। 
  
आज के दिन मैं इतराऊँगी   
औरत होने पर फ़ख़्र करूँगी   
क़र्ज़ सही, ख़ैरात सही   
एक दिन जो मिला   
हम औरतों को मुक्ति के नाम। 
  
क्यों आज अपनी हर साँसों के लिए   
किसी मर्द से फ़रियाद की जाए   
सौ बरस तक साँसें लें   
और बस एक दिन की ज़िन्दगी जी जाए।
   
मैं ख़ुद को धिक्कारती हूँ   
क्यों बस एक दिन की भीख माँगती हूँ   
क्यों नहीं होता हर दिन   
स्त्री-पुरुष का बराबर दिन!

-जेन्नी शबनम (8. 3. 2022)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) 
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सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

739. अलगनी (पुस्तक- नवधा)

अलगनी 

*** 


हर रोज़ थक-हारकर टाँग देती हूँ ख़ुद को खूँटी पर   
जहाँ से मौन होकर देखती-सुनती हूँ दुनिया का जिरह   
कभी-कभी जीवित महसूस करने के लिए   
ख़ुद को पसार आती हूँ अँगना में अलगनी पर   
जहाँ से घाम मेरे मन में उतरकर 
हर ताप को सहने की ताक़त देता है   
और हवा देश-दुनिया की ख़बर सुनाती है। 
   
इस असंवेदी दुनिया का हर दिन, ख़ून में डूबा होता है   
जाति-धर्म के नाम पर क़त्ल 
मन-बहलावा-सा होता है   
स्त्री-पुरुष के दो संविधान 
इस युग के विधान की देन है   
हर विधान में दोनों की तड़प   
अपनी-अपनी जगह जायज़ है। 
   
क्रूरता का कोई अन्त नहीं दिखता   
अमन का कोई रास्ता नहीं दिखता   
संवेदनाएँ सुस्ता रही हैं किसी गुफा में   
जिससे बाहर आने का द्वार बन्द है   
मधुर स्वर या तो संगीतकार के ज़िम्मे है   
या फिर कोयल की धरोहर बन चुकी है। 
   
भरोसा? ग़ैरों से भले मिल जाए   
पर अपनों से...ओह!
   
बहुत जटिलता, बहुत कुटिलता   
शरीर साबुत बच भी जाए    
पर अपनों के छल से मन छिलता रहता है   
दीमक की भाँति   
पीड़ा अपने ही तन-मन को खोखला करती रहती है   
ज़िन्दगी पल-पल बेमानी हो रही है   
छल, फ़रेब, क्रूरता, मज़लूमों की पीड़ा   
दसों दिशाओं से चीख-पुकार गूँजती रहती है। 
   
मन असहाय, सब कुछ असह्य लगता है   
कोई गुहार करे भी तो किससे करे?   
कुछ ख़ास हैं, कुछ शासक हैं, अधिकांश शोषित हैं   
किसी तरह बचे हुए कुछ आम लोग भी हैं   
जो मेरी ही तरह आहें भरते हुए 
खूँटी पर ख़ुद को रोज़ टाँग देते हैं   
कभी-कभी कोटर से निकल 
अलगनी पर पसरकर जीवन तलाशते हैं। 
   
बेहतर है मैं खूँटी पर यूँ ही रोज़ लटकती रहूँ   
कभी-कभी जीवित महसूस करने के लिए   
धूप में अलगनी पर ख़ुद को टाँगती रहूँ   
और ज़माने के तमाशे देख ज्ञात को कोसती रहूँ।   

-जेन्नी शबनम (20. 2. 2022)
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शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

738. वसन्त पञ्चमी (वसन्त पञ्चमी पर 10 हाइकु)

वसन्त पञ्चमी 

******* 


1. 
पीली सरसों   
आया है ऋतुराज   
ख़ूब वो खिली।   

2. 
ज्ञान की चाह   
है वसन्त पञ्चमी   
अर्चन करो।   

3. 
पावस दिन   
ये वसन्त पञ्चमी   
शारदा आईं।   

4. 
बदली ऋतु,   
काश! मन में छाती   
बसन्त ऋतु।   

5. 
अब जो आओ   
ओ! ऋतुओं के राजा   
कहीं न जाओ।   

6. 
वाग्देवी ने दीं   
परा-अपरा विद्या,   
हुए शिक्षित।   

7. 
चुनरी रँगा   
बसन्त रंगरेज़   
धरा लजाई।   

8. 
पीला ही पीला   
बसन्त जादूगर   
फूल व मन।   

9. 
वसन्त ऋतु!   
अब नहीं लौटना   
हाथ थामना।   

10.
हे पीताम्बरा!   
सदा साथ निभाना   
चेतना तुम। 

- जेन्नी शबनम (5. 2. 2022)
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रविवार, 23 जनवरी 2022

737. समय (10 क्षणिका)

समय 

*******


1.
समय 

समय हर बार मरहम नहीं बनता  
कई बार पुराने से ज़्यादा बड़ा घाव दे देता है
जो ताउम्र नहीं भरता 
उस घाव का 
सड़ना गलना और मवाद का बहना देख
अपनी ताक़त पर घमंड करता समय 
हाथ बाँधे अकड़कर खड़ा रहता है।
-०-

2.
रुदाली 

मन में अनुभव की किरचें हैं
जो हर घड़ी चुभती हैं
चुप ज़बान में गीतों की लड़ी है  
जो रुदन बन गूँजती है 
बिखरते सपनों की छटपटाहट है  
जो हर घड़ी टीस देती है 
दर्द के फाहे से दर्द को पोंछती हूँ 
और अपनी साँसे कुतरती हूँ 
ज़िन्दगी की अर्थी सजी है  
मैं रुदाली बन गई हूँ। 
-०-

3.
नटी

यूँ मानो तनी हुई रस्सी पर
नटी की तरह कलाबाज़ी सीख ली है  
गिरते-पड़ते-उठते संतुलन बना लिया मैंने  
अब अग्रसर हूँ 
जीवन जीने की कला के साथ।
-०- 

4.
काग़ज़ 

मैं फूल-सी जन्म लेकर
एक समर्थ लड़की बनी
दुनिया के तीखे बोल से
मैं फूल से पत्थर बनी
अपने दर्द ख़ुद से कहकर
पत्थर से काग़ज़ बनी
अब हर्फ़-हर्फ़ बिखरी हूँ मैं
काग़ज़ों में रची हूँ मैं
अपने दिए ज़ख्मों को
अब तुम सब ख़ुद ही पढ़ो।
-०-

5.
गाँठ 

मानो या  मानोफ़रेब नहीं था
बस नादानियाँ थीं थोड़ी
जिसने  जीने दिया  मरने
दिल की दहलीज़ पर एक गाँठ पड़ गई
जिससे रिश्तों की डोरी छोटी पड़ गई
मन में चुभती ये गाँठें
मेरे जज़्बात को हदों में रखती हैं। 
-०- 

6.
देर न हो जाए

बेहद कठिन होता है
पीली पड़ती पत्तियों को हरा करना
मर रहे पौधों को जिलाना 
बीत चुके मौसम को यादों में ही सही
वापस बुलाना
देर न हो जाए, सँभल जाओ
वरना सारे तर्क और सारे फ़लसफ़े
धरे रह जाएँगे 
और झंकृत दुनिया वीरान हो जाएगी
वक़्त को मुरझाने से पहले सींच लो।
-०-

7.
मिन्नत 

चाँदनी की चाह में
करती रही चाँद से मिन्नतें 
चाँद दग़ा दे गया
अपनी चाँदनी ले गया
जाने किसे दे दिया?
मुझमें अमावास भर गया 
हाय! ये क्या कर गया 
क्यों बेवफ़ा हो गया?
-0-

8.
ताप भर नाता 

ताप भर नाता 
दिल में बचाए रखना
जब सामने रास्ता होगा
पर ज़िन्दगी चल न सकेगी
ठंडी पड़ रही साँसों को
तब ज़रुरत होगी।
-0-

9.
संगदिल 

जाओ! तुम सबको आज़ाद किया 
रिश्ते-नाते और कर्तव्यों से 
संगदिल के साथ 
कुछ वक़्त गुज़ारा जा सकता है 
तमाम उम्र नहीं। 
-0-

10.
इस दुनिया के उस पार 

अपनी समस्त आकांक्षाओं के साथ 
चली जाना चाहती हूँ  
सबसे दूर बहुत दूर 
इस दुनिया के उस पार 
जहाँ से मेरी पुकार 
कभी किसी तक न पहुँचे। 
-0- 

- जेन्नी शबनम (1. 1. 2022)
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