शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

471. रंग

रंग

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काजल थककर बोला-
मुझसे अब और न होगा 
नहीं छुपा सकता
उसकी आँखों का सूनापन,
बिंदिया सकुचा कर बोली-
चुक गई मैं उसे सँवारकर
अब न होगा मुझसे
नहीं छुपा सकती
उसके चेहरे की उदासी,
होंठों की लाली तड़पकर बोली-
मेरा काम अब हुआ फ़िजूल
कितनी भी गहरी लगूँ
अब नहीं सजा पाती 
उसके होंठों पर खिलती लाली,
सिन्दूर उदास मन से बोला-
मेरी निशानी हुई बेरंग
अब न होगा मुझसे
झूठ-मूठ का दिखावापन  
नाता ही जब टूटा उसका  
फिर रहा क्या औचित्य भला मेरा, 
सुनो!
बिन्दी-काजल-लिपिस्टिक लाल 
आओ चल चलें हम
अपने-अपने रंग लेकर उसके पास
जहाँ हम सच्चे-सच्चे जीएँ
जहाँ हमारे रंग गहरे-गहरे चढ़े
खिल जाएँ हम भी जी के जहाँ
विफल न हो हमारे प्रयास जहाँ
करनी न पड़े हमें कोई चाल वहाँ, 
हम रंग हैं
हम सजा सकते हैं 
पर रंगहीन जीवन में नहीं भर सकते
अपने रंग। 

- जेन्नी शबनम (11. 10. 2014)
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