सोमवार, 30 सितंबर 2013

420. क्या बिगड़ जाएगा

क्या बिगड़ जाएगा

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गहराती शाम के साथ  
मन में धुक-धुकी समा जाती है 
सब ठीक तो होगा न 
कोई मुसीबत तो न आई होगी 
कहीं कुछ ग़लत-सलत न हो जाए 
इतनी देर, कोई अनहोनी तो नहीं हो गई 
बार-बार कलाई की घड़ी पर नज़र 
फिर दीवार घड़ी पर 
घड़ी ने वक़्त ठीक तो बताया है न  
या घड़ी खराब तो नहीं हो गई 
हे प्रभु!
रक्षा करना, किसी संकट में न डालना 
कभी कोई ग़लती हुई हो तो क्षमा करना 
वक़्त पर लौट आने से क्या चला जाता है?
कोई सुनता क्यों नहीं? 
दिन में जितनी मनमर्ज़ी कर लो 
शाम के बाद सीधे घर 
आख़िर यह घर है, कोई होटल नहीं
कभी घड़ी पर निगाहें 
कभी मुख्य द्वार पर नज़र 
फिर बालकनी पर चहलक़दमी 
सिर्फ़ मुझे ही फ़िक्र क्यों?
सब तो अपने में मगन हैं 
कमबख़्त टी. वी. देखना भी नहीं सुहाता है 
जब तक सब सकुशल वापस न आ जाए। 
बार-बार टोकना 
किसी को नहीं भाता है 
मगर आदत जो पड़ गई है 
उस ज़माने से ही 
जब हमें टोका जाता था
और हमें भी बड़ी झल्लाहट होती थी 
फिर धीरे-धीरे आदत पड़ी  
और वक़्त की पाबंदी को अपनाना पड़ा था  
पर कितना तो मन होता था तब 
कि सबकी तरह थोड़ी-सी चकल्लस कर ली जाए 
ज़रा-सी मस्ती
ज़रा-सी अल्हड़ता 
ज़रा-सी दीवानगी 
ज़रा-सी शैतानी    
ज़रा-सी तो शाम हुई है 
क्या बिगड़ जाएगा
पर अब 
सब आने लगा समझ में 
फ़िक्रमंद होना भी लत की तरह है 
जानते हुए कि कुछ नहीं कर सकते  
जो होना है होकर ही रहता है 
न घड़ी की सूई, न बालकोनी, न दरवाज़े की घंटी
मेरे हाँ में हाँ मिलाएगी  
फिर भी आदत जो है।

- जेन्नी शबनम (30. 9. 2013)
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