अल्ज़ाइमर
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सड़क पर से गुज़रती हुई
जाने मैं किधर खो गई
घर-रास्ता-मंज़िल, सब अनचिन्हा-सा है
मैं बदल गई हूँ, या फिर दुनिया बदल गई है।
धीरे-धीरे सब विस्मृत हो रहा है
मस्तिष्क साथ छोड़ रहा है
या मैं मस्तिष्क की ऊँगली छोड़ रही हूँ।
कुछ भूल जाती हूँ, तो अपनों की झिड़की सुनती हूँ
सब कहते, मैं भूलने का नाटक करती हूँ
कुछ भूल न जाऊँ, लिख-लिखकर रखती हूँ
सारे जतन के बाद भी, अकसर भूल जाती हूँ
अपने भूलने से, मैं सहमी रहती हूँ
अपनी पहचान खोने के डर से, डरी रहती हूँ।
क्यों सब कुछ भूलती हूँ, मैं पागल तो नहीं हो रही?
मुझे कोई रोग है क्या, कोई बताता क्यों नहीं?
यूँ ही कभी एक रोज़
गिनती के सुख और दुःखों के अम्बार, भूल जाऊँगी
ख़ुद को भूल जाऊँगी, बेख़याली में गुम हो जाऊँगी
याद करने की जद्दोजहद में, हर रोज़ तड़पती रहूँगी
फिर से जीने को, हर रोज़ ज़रा-ज़रा मरती रहूँगी।
मुमकिन है, मेरा जिस्म ज़िंदा तो रहे
पर कोई एहसास, मुझमें ज़िंदा न बचे।
मेरी ज़िन्दगी अब अपनों पर बोझ बन रही है
मेरी आवाज़ धीरे-धीरे ख़ामोश हो रही है
मैं हर रोज़ ज़रा-ज़रा गुम हो रही हूँ
हर रोज़ ज़रा-ज़रा कम हो रही हूँ।
मैं सब भूल रही हूँ
मैं धीरे-धीरे मर रही हूँ।
- जेन्नी शबनम (21. 9. 2020)
(विश्व अल्ज़ाइमर दिवस)
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