बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

591. चाँद की पूरनमासी

चाँद की पूरनमासी

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चाँद तेरे रूप में अब किसको निहारूँ?   
वह जो बचपन में दूर का खिलौना था   
या फिर सफ़ेद बालों वाली बुढ़िया 
जो चरखे से रूई कातती रहती थी 
या फिर वह साथी, जिससे बतकही करते हुए 
न जाने कितनी पूरनमासी की रातें बीती थीं 
इश्क़ के जाने कितने क़िस्से गढ़े गए थे 
जीवन के फ़लसफ़े जवान हुए थे। 
 
क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर 
अपने वजूद में शामिलकर 
जाने कितना इतराया करती थी 
कितने सपनों को गुनती रहती थी 
अब यह सब बीते जीवन का हिस्सा-सा लगता है 
सीखों और अनुभवों का बोधकथा-सा लगता है। 
 
हर पूरनमासी की रात जब तुम खिलखिलाओगे 
अपने रूप पर इठलाओगे 
मेरी बतकही अब मत सुनना 
मेरी विनती सुन लेना 
धरती पर चुपके से उतर जाना 
अँधेरे घरों में उजाला भर देना 
हो सके तो गोल-गोल रोटी बन जाना 
भूखों को एक-एक टुकड़ा खिला जाना। 
 
ऐ चाँद! अब तुमसे अपना नाता बदलती हूँ 
तुम्हें अपना गुरु मानकर  
तुममें अपने गुरु का रूप मढ़ देती हूँ 
मुझे जो पाठ सिखाया जीवन का 
जग को भी सिखला देना 
हर पूरनमासी को आकर 
यूँ ही उजाला कर जाना।

-जेन्नी शबनम (24.10.2018)
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