इनार
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मन के किसी कोने में
अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें।
रस्सी का एक छोर पकड़
छपाक-से कूदती हुई बाल्टी
इनार पर लगी हुई चकरी से
एक सुर में धीरे-धीरे ऊपर चढ़ती बाल्टी
टन-टन करती बड़ी बाल्टी, छोटी बाल्टी
लोटा-कटोरा और बाटी-बटलोही
सब करते रहते ख़ूब बतकही।
दाँत माँजना, बर्तन माँजना
कपड़ा फींचना, दुःख-सुख गुनना
ननद-भौजाई की हँसी-ठिठोली
सास-पतोह की नोक-झोंक
बाबा-दादी के आते ही घूँघट काढ़ करती हड़बड़
चिल्ल-पों करते बच्चों का नहाना
तुरहा-तुरहिन का आकर साँसे भरना
प्यासे बटोही की अँजुरी में
बाल्टी से पानी उड़ेलकर पिलाना
लोटा में पानी भरकर सूरज को अर्घ्य देना।
रोज़-रोज़ वही दृश्य
पर इनार चहकता हर दिन
भोर से साँझ प्यार लुटाता रुके बिन।
एक सामूहिक सहज जीवन
समय के साथ बदला मन
दुःख-सुख का साथी इनार
अब मर गया है
चापाकल घर-घर आ गया है।
परिवर्तन जीवन का नियम है
पर कुछ बदलाव टीस दे जाता है
आज भी इनार बहुत याद आता है।
-जेन्नी शबनम (23.6.2020)
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