सोमवार, 30 मई 2011

248. न मंज़िल न ठिकाना है (तुकांत)

न मंज़िल न ठिकाना है

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बड़ा अजब अफ़साना है, ज़माने से छुपाना है
है बेनाम-सा कोई नाता, यूँ ही अनाम निभाना है।  

सफ़र है बहुत कठिन, रस्ता भी अनजाना है
चलती रही तन्हा-तन्हा, न मंज़िल न ठिकाना है।  

धुँधला है अक्स पर, उसे आँखों में बसाना है
जो भी कह दे ये दुनिया, अब नहीं घबराना है।  

शमा से लिपटकर अब, बिगड़ा नसीब बनाना है
पलभर जल के शिद्दत से, परवाने-सा मर जाना है।  

इश्क़ में गुमनाम होकर, नया इतिहास रचाना है
रोज़ जन्म लेती है 'शब', क़िस्मत का खेल पुराना है।  

- जेन्नी शबनम (30. 5. 2011)
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