गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

184. पहला और आख़िरी वरदान

पहला और आख़िरी वरदान

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वह हठी ये क्या कर गया
विष माँगी थी, वह अमृत चखा गया
एक बूँद अमृत, हलक़ में उतार गया
आह! ये कैसा ज़ुल्म कर गया!

उस दिन कहा था उसने- 
वक़्त को ललकारा तुमने
मृत्यु माँगी असमय तुमने
इसलिए है ये शाप-
सदा जीवित रहो तुम  
अमरता का है तुमको वरदान 

अब तो निर्भय जीवन
अविराम चलायमान जीवन
जीवित रहना है, जाने और कितनी सदी 
कभी नहीं होगी मृत्यु, कभी न मिलेगी मुक्ति
तड़प-तड़पकर जीना, शायद तब तक
नष्ट न हो समस्त कायनात तब तक 

लाख करूँ प्रार्थना
अब नहीं कोई तोड़
चख भी लें जो अमृत
तो नामुमकिन होना मृत 

ख़ौफ़ बढ़ता जा रहा
ये मैंने क्या कर लिया?
क्यों उसके छल में आ गई?
क्यों चख लिया अमृत?
क्यों माँगा था विष?
क्यों वक़्त से पहले मृत्यु चाही?
क्यों? क्यों? क्यों?

जानती थी, वह देवदूत है
दे रहा मुझे पहला और आख़िरी वरदान है
फिर क्यों अपने लिए 
ज़िन्दगी नहीं मैंने मौत माँग ली 

माँगना था, तो प्रेमपूर्ण दुनिया माँगती
जबतक जियूँ बेफ़िक़्र जियूँ
सभी अपनों का प्रेम पाऊँ
कोई दुखी न हो, सर्वत्र सुख हो, आनन्द हो 

चूक मेरी, भूल मेरी
ज़िन्दगी नहीं मृत्यु की चाह की
अब मृत्यु नहीं बस जीना है
कभी शाप-मुक्त नहीं होना है 
सब चले जाएँगे, मेरा कोई न होगा 
न शाप-मुक्त करने वाला कोई होगा 

-जेन्नी शबनम (28.10.2010)
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