शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

604. काला जादू (पुस्तक-96)

काला जादू   

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जब भी, दिल खोलकर हँसती हूँ   
जब भी, दिल खोलकर जीती हूँ   
जब भी, मोहब्बत के आग़ोश में साँसें भरती हूँ   
जब भी, संसार की सुन्दरता को, दामन में समेटती हूँ   
न जाने कब, मैं ख़ुद को नज़र लगा देती हूँ   
मुझे मेरी ही नज़र लग जाती है   
हँसना, जीना, अचानक गुम हो जाता है   
मुहब्बत के आसमान से, ज़मीन पर, पटक दी जाती हूँ   
जिन फूलों को थामे थी, उनमें काँटें उग जाते हैं   
और मेरी ऊँगलियाँ ही नहीं   
तक़दीर की लकीरें भी, लहूलुहान हो जाती हैं   
दौड़ती हूँ, भागती हूँ, छटपटाती हूँ   
चौकन्ना होकर, चारों तरफ़ निहारती हूँ   
मैंने किसी का, कुछ भी तो न छीना, न बिगाड़ा   
फिर मेरे जीवन में, रेगिस्तान कहाँ से पनप जाता है   
कैसे आँखों में, आँसू की जगह, रक्त-धार बहने लगती है   
कौन पलट देता है, मेरी क़िस्मत    
कौन है, जो काला जादू करता है   
कोई तो इतना अपना नहीं, किसी से कोई रंजिश भी नहीं   
फिर यह सब कैसे?   
हाँ! शायद मुझे मेरी ही नज़र लग जाती है   
मैंने ही ख़ुद पर काला जादू किया है   
अल्लाह! कोई इल्म बता   
कोई कारामात कर दे   
मिटने से पहले चाहती हूँ   
हँसना, जीना, मुहब्बत   
बस एक बार   
बस एक बार।     

- जेन्नी शबनम (2. 2. 2019)
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