काला जादू...
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जब भी, दिल खोल कर हँसती हूँ
जब भी, दिल खोल कर जीती हूँ
जब भी, मोहब्बत के आगोश में साँसें भरती हूँ
जब भी, संसार की सुन्दरता को, दामन में समेटती हूँ
न जाने कब, मैं खुद को नजर लगा देती हूँ
मुझे मेरी ही नजर लग जाती है
हँसना, जीना, अचानक गुम हो जाता है
मुहब्बत के आसमान से, जमीन पर, पटक दी जाती हूँ
जिन फूलों को थामे थी, उनमें काँटें उग जाते हैं
और मेरी ऊँगलियाँ ही नहीं
तक़दीर की लकीरें भी, लहूलुहान हो जाती हैं
दौड़ती हूँ, भागती हूँ, छटपटाती हूँ
चौकन्ना होकर, चारों तरफ निहारती हूँ
मैंने किसी का, कुछ भी तो न छीना, न बिगाड़ा
फिर मेरे जीवन में, रेगिस्तान कहाँ से पनप जाता है
कैसे आँखों में, आँसू की जगह, रक्त-धार बहने लगती है
कौन पलट देता है, मेरी किस्मत
कौन है, जो काला जादू करता है
कोई तो इतना अपना नहीं, किसी से कोई रंजिश भी नहीं
फिर यह सब कैसे?
हाँ ! शायद मुझे मेरी ही नजर लग जाती है
मैंने ही खुद पर काला जादू किया है
अल्लाह ! कोई इल्म बता
कोई कारामात कर दे
मिटने से पहले चाहती हूँ
हँसना जीना मुहब्बत
बस एक बार
बस एक बार !
- जेन्नी शबनम (2. 2. 2019)
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