शनिवार, 6 अगस्त 2011

269. उन्हीं दिनों की तरह (पुस्तक - 37)

उन्हीं दिनों की तरह

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चौंककर उसने कहा-
''जाओ लौट जाओ 
क्यों आई हो यहाँ
क्या सिर्फ़ वक़्त बिताना चाहती हो यहाँ?
हमने तो सर्वस्व अपनाया था तुम्हें
क्यों छोड़ गई थी हमें?''
मैं अवाक्! निरुत्तर!
फिर भी कह उठी-
उस समय भी कहाँ मेरी मर्ज़ी चली थी
गवाह तो थे न तुम
जीवन की दशा और दिशा को, तुमने ही तो बदला था
सब जानते तो थे तुम, तब भी और अब भी
सच है, तुम भी बदल गए हो
वो न रहे, जैसा उन दिनों छोड़ गई थी मैं
एक भूलभुलैया या फिर अपरिचित-सी फ़िज़ा
जाने क्यों लग रही है मुझे?
तुम न समझो पर अपना-सा लग रहा है मुझे
थोड़ा-थोड़ा ही सही
आस है, शायद तुम वापस अपना लो मुझे
उसी चिर परिचित अपनेपन के साथ
जब मैं पहली बार मिली थी तुमसे
और तुमने बेझिझक, सहारा दिया था मुझे
यह जानते हुए कि मैं असमर्थ और निर्भर हूँ
और हमेशा रहूँगी
तुमने मेरी समस्त दुश्वारियाँ समेट ली थी
और मैं बेफ़िक्र, ज़िन्दगी के नये रूप देख रही थी
सही मायने में ज़िन्दगी जी रही थी
सब कुछ बदल गया है, वक़्त के साथ
जानती हूँ
पर उन यादों को जी तो सकती हूँ!
ज़रा-ज़रा पहचानो मुझे
एक बार फिर उसी दौर से गुज़र रही हूँ
फ़र्क़ सिर्फ वज़ह का है
एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी तटस्थ हो चली है
मैं असमर्थ और निर्भर हो चली हूँ!
तनिक सुकून दे दो, फिर लौट जाना है मुझे
उसी तरह उस गुमनाम दुनिया में
जिस तरह एक बार ले जाई गई थी, तुमसे दूर
जहाँ अपनी समस्त पहचान खोकर भी
अब तक जीवित हूँ!
मत कहो-
''जाओ लौट जाओ'',
एक बार कह दो-
''शब, तुम वही हो, मैं भी वही
फिर आना, कुछ वक़्त निकालकर
एक बार साथ-साथ जिएँगे
फिर से, उन्हीं दिनों की तरह
कुछ पल!''

- जेन्नी शबनम (17. 7. 2011)
(20 साल बाद शान्तिनिकेतन आने पर)
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