सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

472. कविता (कविता पर 20 हाइकु) पुस्तक 64-66

कविता 

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1. 
कण-कण में  
कविता सँवरती  
संस्कृति जीती। 

2.
अकथ्य भाव 
कविता पनपती 
खुलके जीती।  

3.
अक्सर रोती  
ग़ैरों का दर्द जीती, 
कविता-नारी। 

4.
अच्छी या बुरी, 
न करो आकलन 
मैं हूँ कविता। 

5.
ख़ुद से बात 
कविता का संवाद 
समझो बात। 

6.
शब्दों में जीती, 
अक्सर ही कविता 
लाचार होती। 

7.
कविता गूँजी, 
ख़बर है सुनाती 
शोर मचाती। 

8.
मन पे भारी 
समय की पलटी, 
कविता टूटी। 

9.
कविता देती   
गूँज प्रतिरोध की   
जन-मन में। 

10.
कविता देती 
सवालों के जवाब,  
मन में उठे। 

11.
ख़ुद में जीती  
ख़ुद से ही हारती,  
कविता गूँगी। 

12.
छाप छोड़ती,   
कविता जो गाती  
अंतर्मन में। 

13.
कविता रोती, 
पूरी कर अपेक्षा  
पाती उपेक्षा। 

14.
रोशनी देती  
कविता चमकती  
सूर्य-सी तेज़। 

15.
भाव अर्जित  
भाषा होती सर्जित  
कविता-रूप। 

16.
अंतःकरण 
ज्वालामुखी उगले  
कविता लावा। 

17. 
मन की पीर   
बस कविता जाने,  
शब्दों में बहे। 

18.
ख़ाक छानती 
मन में है झाँकती 
कविता आती। 

19.
शूल चुभाती  
नाज़ुक-सी कविता,   
क्रोधित होती। 

20.
आशा बँधाती 
जब निराशा छाती,  
कविता सखी। 

- जेन्नी शबनम (22. 8. 2014)
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शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

471. रंग

रंग

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काजल थककर बोला-
मुझसे अब और न होगा 
नहीं छुपा सकता
उसकी आँखों का सूनापन,
बिंदिया सकुचा कर बोली-
चुक गई मैं उसे सँवारकर
अब न होगा मुझसे
नहीं छुपा सकती
उसके चेहरे की उदासी,
होंठों की लाली तड़पकर बोली-
मेरा काम अब हुआ फ़िजूल
कितनी भी गहरी लगूँ
अब नहीं सजा पाती 
उसके होंठों पर खिलती लाली,
सिन्दूर उदास मन से बोला-
मेरी निशानी हुई बेरंग
अब न होगा मुझसे
झूठ-मूठ का दिखावापन  
नाता ही जब टूटा उसका  
फिर रहा क्या औचित्य भला मेरा, 
सुनो!
बिन्दी-काजल-लिपिस्टिक लाल 
आओ चल चलें हम
अपने-अपने रंग लेकर उसके पास
जहाँ हम सच्चे-सच्चे जीएँ
जहाँ हमारे रंग गहरे-गहरे चढ़े
खिल जाएँ हम भी जी के जहाँ
विफल न हो हमारे प्रयास जहाँ
करनी न पड़े हमें कोई चाल वहाँ, 
हम रंग हैं
हम सजा सकते हैं 
पर रंगहीन जीवन में नहीं भर सकते
अपने रंग। 

- जेन्नी शबनम (11. 10. 2014)
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