शुक्रवार, 8 मार्च 2024

772. स्त्री जानती है

स्त्री जानती है 

***

उलझनें मिलती हैं, पर कम उलझती है 
स्त्री ये जानती है, स्त्री सब समझती है 
कब कहाँ कितना बोलना है
कब कहाँ कितना छुपाना है
क्या दिल में दफ़्न करना है 
क्या दुनिया को कहना है 
बेबाक़ बातें स्त्री नहीं कर सकती
मन की हर बात नहीं कह सकती
लग जाएँगे बेहयाई के इल्ज़ाम 
हो जाएगी अपने ही घर में बदनाम
जान चली जाए पर मन खोल सकती नहीं  
झूठ कहती नहीं, सच अक्सर बोल सकती नहीं  
उम्र बीत जाए पर मनचाहा नहीं कर सकती
फूल उगा सकती है, पर तितलियाँ नहीं पकड़ सकती 
अपने मन की बातें अपने मन तक
अपने दुख अपने एहसास अपने तक
रिश्ते समेटते-समेटते ख़ुद बिखरती है
कोई नहीं समझता स्त्री कितना टूटती है, मरती है 
हज़ारों शोक, मगर स्त्री के आँसू नापसन्द हैं
हँसती-खिलखिलाती स्त्री सबकी पसन्द है
जन्म से मिली इस विरासत को ढोना है
स्त्री को इन्सान नहीं केवल स्त्री होना है 
और स्त्री की स्त्री होने की यह अकथ्य पीड़ा है।

-जेन्नी शबनम (8.3.2024)
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)
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मंगलवार, 30 जनवरी 2024

771. अन्तिम लक्ष्य

अन्तिम लक्ष्य 

***

यूँ लगता है
मैं बाढ़ में ज़मीन से उखड़ा हुआ कोई दरख़्त हूँ
नदी के पानी पर चल रही हूँ
चल नहीं रही, फिसल रही हूँ
जाने कहाँ टकराऊँ, कहाँ पार लगूँ
या किसी भँवर में फँसकर डूब जाऊँ। 

क्या मेरे अस्तित्व का कोई निशान होगा?
किसी को परवाह होगी?
कहाँ दफ़्न होना है, कहाँ क़ब्रगाह होगी
मुमकिन है मेरे मिटने के बाद नयी कहानी हो
यही अच्छा है मगर
न कोई निशानी हो, न कोई कहानी हो।

और भी लोग जीवन भर पानी में रह रहे हैं
जानती हूँ, मेरी तरह हज़ारों पेड़ बह रहे हैं
कोई-कोई पेड़ कहीं किसी साहिल से टकराकर
एक नई ज़मीन को पकड़कर ख़ुद को बचा लेगा
ख़ुद को लहरों की प्रलय से दूर हटा लेगा
जाने वह दरख़्त ख़ुशनसीब होगा या बदनसीब होगा
या मेरी ही तरह अनकही कहानियों के साथ
जीने को विवश होगा। 

उफ! ये पानी क्यों नहीं समझता अपनी ताक़त
जबरन बहाए लिए जाता है
मुझे शक्तिहीनता का बोध कराता है
जानती हूँ मेरी ज़ात शक्तिहीन हो जाती है
अक्सर लाचार हो जाती है
कभी तन से कभी मन से
कभी दायित्व से कभी ममत्व से।

पानी पर फिसलते-फिसलते
मैं अब थक गई हूँ
मेरे रास्ते में न साहिल है न भँवर
न ज़मीं है न सहर
न आसमाँ न रात का क़मर
एक बाँध है जिसने रास्ता रोक रखा है
कहीं मिल न जाए समुन्दर।

अँधेरे के सफ़र पर पानी में बहती-उपटती हूँ
कई बार ख़ुद को ही दबोच लेने का मन होता है
किसी तरह बाँध की झिर्रियों से बहकर
दूर निकल जाने का मन करता है
समुन्दर अन्तिम लक्ष्य
समुन्दर अन्तिम सत्य है
समुन्दर में समा जाने का मन करता है।

राह में जो बाँध हाथ बाँधे खड़ा है
काश! वह मेरी राह न रोके
या फिर मुझे ऊपर खींच ले
और किसी बगान के कोने में
ज़रा-सी ज़मीन में मुझे रोप दे।

तन-मन मृत हो रहा है
आस लेकिन जीवित है।

-जेन्नी शबनम (30.1.24)
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गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

770. हँसती हुई नारी (चोका)

हँसती हुई नारी (चोका)

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लगती प्यारी
हँसती हुई नारी
घर-संसार
समृद्धि भरमार
रिश्तों की गूँज
पसरी अनुगूँज
चहके घर
सुवासित आँगन
बच्चों का प्यार
पुरुष से सम्मान
पाकर के स्त्री
चहकती रहती,
खिलखिलाती
सम्बन्धों की फ़सल
लहलहाती
नाचती हैं ख़ुशियाँ
प्रेम-बग़िया
फूलती व फलती,
पाकर प्रेम
पाके अपनापन
भर उमंग
करती निछावर
तन व मन
सूरज-सा करती
निश्छल कर्म
स्त्री सदैव बनती
मददगार
अपने या पराए
चाँद-सी बन
ठण्डक बरसाती
नहीं सोचती
सिर्फ़ अपने लिए
करती पूर्ण
वह हर कर्तव्य
ममत्व-भरा
नारी है अन्नपूर्णा
बड़ी संयमी
मान-प्यार-दुलार
नारी-मन का सार।

- जेन्नी शबनम (7. 12. 2023)
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बुधवार, 20 दिसंबर 2023

769. मन गुल्लक (5 हाइकु)

मन गुल्लक (5 हाइकु)

1.
मन गुल्लक
ख़ुशियों का ख़ज़ाना
ख़त्म न होता।

2.
मन है बना
ख़ुशियों का गुल्लक
कोई न लूटे।

3.
भर के रखो
ख़ुशियों का गुल्लक
भले ही टूटे।

4.
भरा गुल्लक
ख़ुशियों का रुपया
मेरा ख़ज़ाना।

5.
मेरा गुल्लक
ख़ुशियों से है भरा
कभी न टूटा।

- जेन्नी शबनम (19.12.2023)
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गुरुवार, 16 नवंबर 2023

768. जीकर देखना है

जीकर देखना है   

***


जीवन तो जी लिया 

कभी अपने लिए जीकर देखा क्या? 

सच ही है 

जीते-जीते जीना कब कोई भूल जाता है

कुछ पता नहीं चलता

तभी तो कोई पूछता है- 

कभी अपने लिए जीकर देखा है?

यह तो यूँ है जैसे कोई नदी से पूछे- तुमने बहकर देखा है 

बादलों से पूछे- तुमने बारिश में नहाकर देखा है 

आग से पूछे- तुमने जलकर देखा है 

सूरज से पूछे- तुमने उगकर-डूबकर देखा है 

सबकी फ़ितरत एक जैसी है 

अनवरत नियमों के साथ रहना

पर मैं क्यों प्रकृति के विरुद्ध? 

साँसें का चलना, दिल का धड़कना

यही तो नियम है

पर मैं प्रफुल्लित क्यों नहीं?

नदी-बादल-आग-सूरज 

वे तल्लीन हैं अपने बहाव में

अकेले होकर भी ख़ुश 

प्रकृति के नियमों से बँधे, सिर्फ़ अपने साथ

 कोई हड़बड़ी,  घबराहट

 कुछ छूटने का डर,  कुछ पाने की लालसा 

शायद यही जीवन है

फ़लसफ़ा भले कुछ भी हो

पर सत्य तो यही है

ये प्रवाहमय होकर दूसरों को सुख पहुँचाते हैं 

स्वयं भी आह्लादित रहते हैं। 

प्रवाहमान तो मैं भी हूँ 

पर  मैं ख़ुश हूँ,  कोई मुझसे

यह कैसा जीवन?

 अपने लिए है,  किसी के लिए

मैंने कभी जीकर क्यों  देखा?

शायद जीकर देखा होता

सिर्फ़ अपने लिए जीकर देखा होता

तो बात ही कुछ और होती 

प्रकृति ने हँसने को कहा 

मैंने जबरन हँसी ओढ़ी 

मुझसे कहा गया कि नाचूँ-गाऊँ

मैंने सिनेमा का कोई दृश्य चला दिया

सबने कहा फ़र्ज़ निभाओ

ख़ामोशी से फ़र्ज़ निभा दिया

इन सब में मैं कहाँ?

यह यायावर मन  अपना,  किसी का

शहर के बियाबान में भटककर

आकाश में एक चिनगारी ढूँढता। 

अब भी समय है

आस है तो प्राण है

प्राण है तो जीवन है

भले कुछ भी अपना नहीं 

 सगा  सखा

पर जीवन तो है

एक बार अपने लिए जीकर देखना है


-जेन्नी शबनम (16.11.2023)
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767. जन्मदिन (10 ताँका)

जन्मदिन (ताँका)

***

1.
उम्र की तीली
धीरे-धीरे सुलगी
कुछ है शेष
कब होगा अशेष
समय ही जानता।

2.
जन्म की तिथि
बताने बढ़ी उम्र
फिर से आई,
उम्र का लेखा-जोखा
क्यों करना है भाई।

3.
खोजती हूँ मैं
अब भी बच्ची हूँ मैं
बाबा व अम्मा,
छोड़ चले गए वे
यादों में जन्मदिन।

4.
ख़ूब मिलता
जन्मदिन जो आता
शुभकामना
आँचल में भरके
सौग़ात है मिलती।

5.
मैं अलबेली
जन्मदिन मनाती
भले अकेली
खाकर होती तृप्त
खीर-पूरी-मिठाई।

6.
पिघली ओस
जन्मदिन के दिन
हँसके देती
ठंडक का आशीष
बोली- फूल-सा खिलो।

7.
सूर्य कहता-
बस चलती रहो
कैसा भी पल
हारना न रुकना
सीखो मुझ-सा जीना।

8.
सूरज उगा
भरता उजियारा
मन में मेरे
सन्देश है भेजता
सदा जलो मुझ-सा।

9.
वक्त ने कहा-
उम्र का लेखा-जोखा
मत करना।
जब तक हैं साँसें
जीभरकर जीना।

10.
सुन्दर दिन
मेरा है जन्मदिन
चहकती मैं,
अनुभव का रंग
मुझे करे रंगीन।

- जेन्नी शबनम (16.11.2023)
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रविवार, 12 नवंबर 2023

766. दीवाली ख़ुश (20 हाइकु)

दीवाली ख़ुश (हाइकु)
***
1.
पूनो-सी खिली
चहके दीया-बाती
हर अँगना।

2.
अमा जा छुपी
दीयों से डरकर,
ख़ुश दीवाली।

3.
बम-पटाखे
प्रदूषण से हारे
डिब्बों में बन्द।

4.
जल न सके
प्रदूषण पसरा
पटाखे दुःखी।

5.
जन बेचारा
प्रदूषण का मारा
पटाखे गुम।

6.
पूनो चाहती-
काश! दिखे दीवाली!
अमा से हारी।

7.
नभ में तारे
दीवाली हैं मनाते
ज़मीं पे दीए।

8.
अमा की रात
घर-घर पूर्णिमा
दीवाली रात।

9.
ऊँचे महल
जगमग दीवाली,
झोपड़ी दुःखी।

10.
अमा भगाके
दीवाली देती सीख-
विजयी भव!

11.
रात काली है
मन में दीवाली है
घबराना क्यों?

12.
अमा छँटेगी
मत सोच अधिक
होगी दीवाली। 

13.
चाँद-सितारे
प्रदूषण ने खाए,
दीप जलाएँ।

14.
हारना मत
दीवाली का सन्देश
दीप-से जलो!

15.
अँधेरा छुपा,
घर-घर दीवाली
लगती न्यारी।

16.
माटी का दीया
जगमग बिजली,
दुःखी बेचारा।

17.
मुस्कुरा रही
दीपों की फुलवारी
सुन्दर-प्यारी।

18.
सुन दीवाली!
जल्दी मत लौटना
साथ रहना।

19.
दीवाली बोली-
माटी के दीप जला!
माटी है ख़ुश।

20.
ख़ूब चहकी
बिजली की लड़ियाँ,
दीपक दुःखी।

-जेन्नी शबनम (12.10.202)
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शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

765. चहुँ ओर उल्लास (चोका)

चहुँ ओर उल्लास (चोका)

***

शहर छीने
गाँव का माटी-घर
मिटती रही
देहरी पर हँसी,
मिट गया है
गाछ का चबूतरा,
जो सुनता था
बच्चों-बूढ़ों की कथा
भोर की बेला,
मिटता गया अब
माटी का दीया
भले आए दीवाली
चारो तरफ़
जगमग बिजली।
कोई न पारे
अँखियाों का काजल
कोने में पड़ा
कजरौटा उदास
बाट जोहता
अबकी दीवाली में
कोई तो पारे।
तरसती रहती
गाँव की धूप
कोई न आता पास
सेंकता धूप
न कोई है बनाता
बड़ी-अचार
बाज़ार ने है छीने
देसी मिठास।
विदेशी पकवान
छीने सुगन्ध
खीर-पूरी-मिठाई
बिसरे सब
भूले त्योहारी गंध
फैला मार्केट
केक व चॉकलेट।
नहीं दिखतीं
वह बुढ़िया दादी
सूप मारतीं
दरिद्दर भगातीं,
दुलारी अम्मा
पकवान बनातीं
ओल का चोखा
आलू का है अचार
अहा! क्या स्वाद!
भूले हम संस्कृति
अतीत बनी
पुरानी सब रीति
सारा त्योहार
अब बना व्यापार।
कैसी दीवाली
अपने नहीं पास!
बिसरो दुःख
सजो और सँवरो
दीप जलाओ
मन में भरो आस
चहुँ ओर उल्लास।

-जेन्नी शबनम (10.11.2023)
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सोमवार, 6 नवंबर 2023

764. शहर के पाँ (चोका)

शहर के पाँ (चोका)

***

शहर के पाँ
धीरे-धीरे से चले
चल न सके
पगडंडियों पर
गाड़ी से चले
पहुँच गए गाँव।
दिखा है वहाँ
मज़दूर-किसान
सभी हैं व्यस्त
कर्मों में नियमित
न थके-रुके
कर खेती-किसानी।
शहर सोचे-
अजीब हैं ये लोग
नहीं चाहते
बहुमंज़िला घर
नहीं है चाह
करोड़पति बनें 
संतुष्ट बड़े
जीवन से हैं ख़ुश।
धूर्त शहर
नौजवानों को चुना
भेजा शहर
चकाचौंध शहर
निगल गया
नौजवानों का तन
हारा है मन।
आलीशान मकान
सड़कें पक्की
जगमग हैं रातें
ठौर-ठिकाना
अब कहाँ वे खोजें?
कहाँ रहते?
फुटपाथ है घर
यही ठिकाना। 
गाँव रहता दुःखी
पीड़ा जानता
पर कहता किसे 
बना है गाँव
कंक्रीट का शहर
कंक्रीट रोड
जगमग बिजली।
राह ताकती
गाँव की बूढ़ी आँखें
गुम जवानी
आस से हैं बुलातीं-
वापस आओ
नहीं चाहिए धन
नहीं चाहिए
कंक्रीट का महल
अपनी मिट्टी
सब ख़त्म हो गई
ख़त्म हो गई 
वो पुश्तैनी ज़मीन।
अंततः आया
वह आख़िरी पल
आया जवान
बेचके नौजवानी
गाँव की मिट्टी
लगती अनजानी
घर है सूना
अब न दादी-दादा 
न अम्मा-बाबा
कई पुश्त गुज़रे
नहीं निशानी
लगातार चलते
नहीं थकते
लगातार ढूँढते
फिर से नया गाँव।

-जेन्नी शबनम (6.11.2023)
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सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

763. काँच के ख़्वाब (चोका)

काँच के ख़्वाब (चोका)

 ***


काँच के ख़्वाब 

फेरे जो करवट

चकनाचूर 

हुए सब-के-सब,

काँच के ख़्वाब 

दूसरा करवट

लगे पलने

फेरे जो करवट

चकनाचूर

फिर सब-के-सब,

डर लगता

कहीं नींद जो आई

काँच के ख़्वाब 

पनपने  लगे,

ख़्वाब देखना

हर पल टूटना

अनवरत

मानो टूटता तारा

आसमाँ रोता

मन यूँ ही है रोता,

ख़्वाब देखता

करता नहीं नागा

मन बेचारा

ज्यों सूरज उगता,

हे मन मेरा!

समझ तू ये खेला

काँच का ख़्वाब 

यही नसीब तेरा

 देख ख़्वाब 

जिसे होना  पूरा,

चकोर ताके 

चन्दा है मुस्कुराए

मुँह चिढ़ाए

पहुँच नहीं पाए

जान गँवाए

यूँ ही काँच के ख़्वाब 

मन में पले

उम्मीद है जगाए,

पूरे  होते

फेरे जो करवट 

चकनाचूर 

होते सब-के-सब

मेरे काँच के ख़्वाब। 


-जेन्नी शबनम (25.9.2023)

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