रूह (10 क्षणिकाएँ)
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1.
कील
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मन के नाज़ुक तहों में
कभी एक कील चुभी थी
जो बाहर न निकल सकी
वह बारहा टीस देती है
जब-जब दूसरी नई कील
उसे और अंदर बेध देती है !
2.
काँटे
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तमाम उम्र जिंदगी से काँटे छाँटती रही
ताकि जिंदगी बस फूल ही फूल हो
बिना चुभे एक भी काँटा अलग न हुआ
हर बार चुभता, जख्म देता, रूलाता
धीरे-धीरे फूलों का खिलना बंद हुआ
रह गए बस काँटे ही काँटे
अब इसे छाँटना क्या !
3.
जल गए
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वक़्त की टहनी पर
रिश्तों के फूल खिले
कुछ टिके, कुछ झरे
कुछ रुके, कुछ बढे
जो टिके, वे सँभल न सके
जो झरे, वे झुलस गए
जिंदगी आग का दरिया है
वक़्त के साथ सब जल गए
वक़्त के साथ सब ढल गए !
4.
साथ
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हम समझते थे
वक़्त पर साथ मेरे
सब खड़े होंगे
ताल्लुकात के रंग
वक़्त ने बहुत पहले ही
दिखा दिए !
5.
हिसाब
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तमाम उम्र हिसाब लगाते रहे
क्या पाया क्या न पाया
फ़ेहरिस्त तो बनी बड़ी लम्बी
मगर सिर्फ़ कुछ न पाने की !
6.
गुजर गया
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सूखे पत्तों-सा सूखा मन
बिखरा पड़ा, मानो पतझड़
आस की ऊँगली थामे
गुज़र गया, तमाम जीवन !
7.
परिहास
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संबंधों की पृष्ठभूमि पर
भाव लिखूँ
अभाव लिखूँ
प्रभाव लिखूँ
या तहस-नहस होते नातों पर
परिहास लिखूँ !
8.
माँग
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हर लम्हा वक़्त ने है छीना
सारी उम्र पे कब्ज़ा है
अब कुछ भी तो शेष नहीं
वक़्त अभी भी माँग रहा
मैं मानूँगी आदेश नहीं
अब कुछ भी तो शेष नहीं !
9.
रूह
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एक रूह की तलाश में
कितने ही पड़ाव मिले
पर कहीं ठौर न मिला
कहीं ठहराव न मिला
मन का सफ़र ख़त्म नही होता
रूहों का नगर जाने कहाँ होता है ?
रूहें शायद सिर्फ़ आसमान में बसती हैं !
10.
घात
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सपने और साँसें
दोनों नजरबंद हैं
न जाने कौन
घात लगाए बैठा हो
जरा-सी चूक
और सब ख़त्म !
- जेन्नी शबनम (20. 8. 2020)
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