इम्म्युन...
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अब तक ग़ैरों से छुपती थी
अब ख़ुद से बचती हूँ
अपने वजूद को
अलमारी के उस दराज़ में रख दी हूँ
जहाँ गैरों का धन रखा होता है
चाहे सड़े या गले
पर नज़र न आए
यूँ भी
मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती है,
इतना ही काफ़ी है
मेरा मैं
दराज़ में महफ़ूज़ है,
यूँ भी
चाहे सड़े या गले
पर नज़र न आए
यूँ भी
मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती है,
इतना ही काफ़ी है
मेरा मैं
दराज़ में महफ़ूज़ है,
यूँ भी
ग़ैरों के वतन में
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ'
ये सोच सकूँ
और खुद को
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ'
ये सोच सकूँ
और खुद को
अपने आईने में देख सकूँ !
- जेन्नी शबनम (7. 7. 2014)
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