बुधवार, 21 मार्च 2012

333. कवच

कवच

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सच ही कहते हो
हम सभी का अपना-अपना कवच है
जिसका निर्माण हम ख़ुद करते हैं
स्वेच्छा से
जिसके भीतर हम ख़ुद को क़ैद किए होते हैं
आदत से
फिर धीरे-धीरे ये कवच
पहचान बन जाती है
और उस पहचान के साथ
स्वयं का मान-अपमान जुड़ जाता है
शायद इस कवच के बाहर
हमारी दुनिया कुछ भी नही
किसी सुरक्षा के घेरे में
बेहिचक जोख़िम उठाना कठिन नहीं
क्योंकि यह पहचान होती है
एक उद्घोष की तरह-
आओ और मुझे परखो
उसी तराज़ू पर तौलो
जिस पर खरे होने की
तमाम गुंजाइश है। 

- जेन्नी शबनम (21. 3. 2012)
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