रविवार, 23 जनवरी 2011

207. पाप तो नहीं

पाप तो नहीं

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जीवन के मायने हैं -
जीवित होना या जीवित रहना 
क्या सिर्फ़
साँसें ही तक़ाज़ा है?
फिर क्यों दर्द से व्याकुल होता है मन
क्यों कराह उठती है आत्मा
पूर्णता के बाद भी
क्यों अधूरा-सा रहता है मन?
इच्छाएँ कभी मरती नहीं
भले कम पड़ जाए ज़िन्दगी
पल-पल ख्वाहिशें बढ़ती हैं 
तय है कि सब नष्ट होना है
या फिर छिन जाना है 
सुकून के कुछ पल
क्यों कभी-कभी 
पूरी ज़िन्दगी से लगते हैं?
यथार्थ से परे
न सोचना है, न रुकना है
ज़िन्दगी जीना या चाहना
पाप तो नहीं?

- जेन्नी शबनम (23. 1. 2011)
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206. मर्द ने कहा (पुस्तक पेज - 68)

मर्द ने कहा

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मर्द ने कहा -
ऐ औरत!
ख़ामोश होकर मेरी बात सुन
जो कहता हूँ वही कर
मेरे घर में रहना है, तो अपनी औक़ात में रह
मेरे हिसाब से चल, वरना...!

वर्षों से बिखरती रही, औरत हर कोने में
उसके निशाँ पसरे थे, हर कोने में
हर रोज़ पोछती रही, अपनी निशानी
जब से वह, मर्द के घर में थी आई
नहीं चाहती कि कहीं कुछ भी, रह जाए उसका वहाँ
हर जगह उसके निशाँ, पर वो थी ही कहाँ?

वर्षों बीत जाने पर भी
मर्द बार-बार औरत को
उसकी औक़ात बताता है
कहाँ जाए वो?
घर भी अजनबी और वो मर्द भी
नहीं है औरत के लिए, कोई कोना
जहाँ सुकून से, रो भी सके!

- जेन्नी शबनम (22. 1. 2011)
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