सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

213. यह सब इत्तिफ़ाक़ नहीं

यह सब इत्तिफ़ाक़ नहीं

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कई लम्हे जो चुपके से
मेरे हवाले किये तुमने
और कुछ पल चुरा लिए
ज़माने से हमने
इतना जानती हूँ
यह सब इत्तिफ़ाक़ नहीं
तक़दीर का कोई रहस्य है
जो समझ से परे है
बेहतर भी है कि न जानूँ
जानना भी नहीं चाहती
क्यों हुआ यह इत्तिफ़ाक़?
क्या है रहस्य?
किसी आशंका से भयभीत हो
उन एहसासों को खोना नहीं चाहती
जो तुमसे पायी हूँ
जानती हूँ
कोई मंज़िल नहीं
न मिलनी है कभी मुझे
फिर भी हर बार
एक नयी ख़्वाहिश पाल लेती हूँ
और थोड़ा-थोड़ा जी लेती हूँ
जीवन के वो सभी पल
मुमकिन है
अब दोबारा न मिल पाए
फिर भी उम्मीद है
शायद
एक बार फिर...!
अब बस जीना चाहती हूँ
आँखें मूँद उन पलों के साथ
जिनमें
तुम्हें न देख रही थी
न सुन रही थी
सिर्फ़ तुम्हें जी रही थी

- जेन्नी शबनम (14 . 2 . 2011)
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