सोमवार, 29 जून 2009

66. आख़िर क्यों

आख़िर क्यों

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बेअख़्तियार दौड़ी थी
जाने क्यों?
कुछ पाने या खोने
जाने क्यों?
कुछ लम्हों की सौग़ात मिली
साथ दर्द इक इनाम मिला,
अंहकार की घोर टकराहट थी
और भय की अखंडित दीवार थी,
पाट सकी न अपना संशय
जता सकी न अपना आशय,
पाप-पुण्य से परे प्यासे तन
सत्य-असत्य से विचलित मन,
बाँट सकी न अपनी निराशा
दिला सकी न कोई आशा,
थम सकी न मेरी राहें
थाम सकी न कोई बाहें,
बेतहाशा भागी थी
आख़िर क्यों?
क्या पाया, क्या खोया 
आख़िर क्यों?

- जेन्नी शबनम (नवम्बर 2008)
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