शनिवार, 30 मई 2020

667. नीरवता

नीरवता 

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मन के भीतर   
एक विशाल जंगल बस गया है 
जहाँ मेरे शब्द चीखते-चिल्लाते हैं 
ऊँचे वृक्षों-सा मेरा अस्तित्व 
थककर एक छाँव ढूँढता है 
लेकिन छाँव कहीं नहीं है   
मैंने ख़ुद वृक्षों का क़त्ल किया था,   
इस बीहड़ जंगल से अब मन डरने लगा है   
ढूँढती हूँ, पुकारती हूँ   
पर कहीं कोई नहीं है   
मैंने इस जंगल में आने का न्योता   
कभी किसी को दिया ही नहीं था,   
मन में ये कैसा कोलाहल ठहर गया है?   
जानवरों के जमावड़े का ऊधम है 
या मेरे सपने टकरा रहे हैं?   
कभी मैंने अपनी सभी ख़्वाहिशों को   
ताक़त के रूप में बाँटकर, आपस में लड़ा दिया था   
और जो बच गए थे, उन्हें आग में जला डाला   
अब तो सब लुप्त हो चुके हैं   
मगर शोर है कि थमता ही नहीं,   
मन का यह जंगल, न आग लगने से जलता है   
न आँधियों में उजड़ता है   
नीरवता व्याप्त है, जंगल थरथरा रहा है   
अब क़यामत आने को है।   

- जेन्नी शबनम (30. 5. 2020)
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