बुधवार, 20 जुलाई 2011

266. एक चूक मेरी

एक चूक मेरी

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रास्ते पर चलते हुए
मैं उससे टकरा गई
उसके हाथ में पड़े सभी
फ़लसफ़े गिर पड़े
जो मेरे लिए ही थे
सभी टूट गए
और मैं देखती रही।   

उसने कहा -
ज़रा-सी चूक
तमाम जीवन की सज़ा बन गई तुम्हारी
तुम जानती हो कि उचित क्या है
क्योंकि तुमने देखे हैं उचित फ़लसफ़े
जो जन्म के साथ तुम्हें मिलने थे
जिनके साथ तुम्हें जीना था,
पर, अडिग रहने का साहस
अब तुममे न होगा
जाओ और बस जीयो
उन सभी की तरह
जो बिना किसी फ़लसफ़े 
जीते और मर जाते हैं,
बस एक फ़र्क़ होगा 
तुम्हें पता है तुम्हारे लिए सही क्या है
यह जानते हुए भी अब तुम्हें बेबस जीना होगा
अपनी आत्मा को मारना होगा।  

मेरे पास मेरे तर्क थे
कि ये अनजाने में हुआ
एक मौका और...!
इतने न सही थोड़े से...!
पर उसने कहा -
ये सबक़ है इस जीवन के लिए
ज़रा सी चूक
और सब ऐसे ही ख़त्म हो जाता है
कोई मौक़ा दोबारा नहीं मिलता है।  

आज तक मैं जी रही
मेरे फ़लसफ़ों के टूटे टुकड़ों में
अपनी ज़िन्दगी को बिखरते देख रही
रोज़-रोज़ मेरी आत्मा मर रही।   
वो वापस कभी नहीं आया
न दोबारा मिला
एक चूक मेरी
और...!

- जेन्नी शबनम (20. 7. 2011)
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शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

265. मैं भी इंसान हूँ (पुस्तक - 30)

मैं भी इंसान हूँ

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मैं, एक शब्द नही, एहसास हूँ, अरमान हूँ
साँसे भरती हाड़-मांस की, मैं भी जीवित इंसान हूँ। 
दर्द में आँसू निकलते हैं, काटो तो रक्त बहता है
ठोकर लगे तो पीड़ा होती है, दग़ा मिले तो दिल तड़पता है। 
कुछ बंधन बन गए, कुछ चारदीवारी बन गई
पर ख़ुद में, मैं अब भी जी रही। 
कई चेहरे ओढ़ लिए, कुछ दुनिया पहन ली
पर कुछ बचपन ले, मैं आज भी जी रही। 
मेरे सपने, आज भी मचलते हैं
मेरे जज़्बात, मुझसे अब रिहाई माँगते हैं। 
कब, कहाँ, कैसे-से कुछ प्रश्न
यूँ ही पनपते हैं, और ये प्रश्न
मेरी ज़िन्दगी उलझाते हैं। 
हाँ, मैं सिर्फ़ एक शब्द नहीं
साँसे भरती हाड़-मांस की
मैं भी जीवित इंसान हूँ।   

- जेन्नी शबनम (22. 1. 2009)
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रविवार, 10 जुलाई 2011

264. आत्मकथा

आत्मकथा

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एक सदी तक चहकती फिरी
घर आँगन गलियों में
थी कथा परियों की
और जीवन फुदकती गौरैया-सी।   

दूसरी सदी में आ बसी
हर कोने चौखट चौबारे में
कण-कण में बिछती रही
बगिया में ख़ुशबू-सी।    

तीसरी सदी तक आ पहुँची
घर की गौरैया अब उड़ जाएगी
घर आँगन होगा सूना
याद बहुत आएगी
कोई गौरैया है आने को
अपनी दूसरी सदी में जीने को
कण-कण में समाएगी
घर आँगन वो खिलाएगी।  

ख़ुद को अब समेट रही
बिखरे निशाँ पोंछ रही
यादों में कुछ दिन जीना है
चौथी सदी बिताना है
फिर तस्वीर में सिमट जाना है।   

जाने कैसी ये आत्मकथा
मेरी उसकी सबकी
एक जैसी है
खिलना बिछना सिमटना
ख़त्म होती यूँ
गौरैया की कहानी है।   

- जेन्नी शबनम (30. 5. 2011)
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गुरुवार, 7 जुलाई 2011

263. स्तब्ध खड़ी हूँ

स्तब्ध खड़ी हूँ

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ख़्वाबों के गलियारे में, स्तब्ध मैं हूँ खड़ी
आँखों से ओझल, ख़ामोश पास तुम भी हो खड़े,
साँसे हैं घबराई-सी, वक़्त भी है परेशान खड़ा
जाने कौन सी विवशता है, वक़्त ठिठका है
जाने कौन सा तूफ़ान थामे, वक़्त ठहरा है। 

मेरी सदियों की पुकार तुम तक नहीं पहुँचती
तुम्हारी ख़ामोशी व्यथित कर रही है मुझे, 
अपनी आँखों से अपने बदन का लहू पी रही
और जिस्म को आँसुओं से सहेज रही हूँ। 

मैं, तुम और वक़्त
सदियों से सदियों का तमाशा देख रहे हैं
न हम तीनों थके न सदियाँ थकीं, 
शायद एक और इतिहास रचने वाला है
या शायद एक और बवंडर आने वाला है। 

- जेन्नी शबनम (23. 1. 2009)
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बुधवार, 6 जुलाई 2011

262. ज़िन्दगी मौक़ा नहीं देती (क्षणिका)

ज़िन्दगी मौक़ा नहीं देती

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ख़ौफ़ के साये में ज़िन्दगी को तलाशती हूँ
ढेरों सवाल हैं पर जवाब नहीं
हर पल हर लम्हा एक इम्तहान से गुज़रती हूँ
ख़्वाहिशें इतनी कि पूरी नहीं होती
कमबख़्त, ये ज़िन्दगी मौक़ा नहीं देती। 

- जेन्नी शबनम (24. 1. 2009)
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शनिवार, 2 जुलाई 2011

261. विजयी हो पुत्र (पुस्तक - 52)

विजयी हो पुत्र

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मैं, तुम्हारी माँ, एक गांधारी
मैंने अपनी आँखों पे नहीं
अपनी संवेदनाओं पे पट्टी बाँध रखी है
इसलिए नहीं कि
तुम्हारा शरीर वज्र का कर दूँ
इसलिए कि
अपनी तमाम संवेदनाएँ तुममें भर दूँ। 

यह युद्ध दुर्योधन का नहीं
जिसे माँ गांधारी की समस्त शक्ति मिली
फिर भी हार हुई
क्योंकि उसने मर्यादा को तोड़ा
अधर्म पर चला 
अपनों से छल किया
स्त्री, सत्ता और संपत्ति के कारण युद्ध किया। 

मेरे पुत्र,
तुम्हारा युद्ध धर्म का है
जीवन के सच का है
अंतर्द्वंद्व का है
स्वयं के अस्तित्व का है। 

तुम पांडव नहीं
जो कोई कृष्ण आएगा सारथी बनकर
और युद्ध में विजय दिलाएगा
भले ही तुम धर्म पर चलो
नैतिकता पर चलो
तुम्हें अकेले लड़ना है और सिर्फ़ जीतना है
 
मेरी पट्टी नितांत अकेले में खुलेगी
जब तुम स्वयं को अकेला पाओगे
दुनिया से हारे, अपनों से थके
मेरी संवेदना, प्रेम, विश्वास, शक्ति
तुममें प्रवाहित होगी
और तुम जीवन-युद्ध में डटे रहोगे
जो तुम्हें किसी के विरुद्ध नहीं
बल्कि स्वयं को स्थापित करने के लिए करना है। 

मेरी आस और आकांक्षा
अब बस तुम से ही है
और जीत भी। 

- जेन्नी शबनम (22. 6. 2011)
(पुत्र अभिज्ञान के 18 वें जन्मदिन पर)
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

260. तुम्हारे सवाल

तुम्हारे सवाल

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न तो सवाल बनी तुम्हारे लिए कभी
न ही कोई सवाल किया तुमसे कभी
फिर क्यों हर लम्हों का हिसाब माँगते हो?
फिर क्यों उगते हैं नए-नए सवाल तुममें?

कहाँ से लाऊँ उनके जवाब
जिसे मैंने सोचा ही नहीं
कैसे दूँ उन लम्हों का जवाब
जिन्हें मैंने जिया ही नहीं।  

मेरे माथे की शिकन की वज़ह पूछते हो
मेरे हर आँसुओं का सबब पूछते हो
अपने साँसों की रफ़्तार का जवाब कैसे दूँ?
अपने हर गुज़रते लम्हों का हिसाब कैसे दूँ?

तुम्हारे बेधते शब्दों से
आहत मन के आँसुओं का क्या जवाब दूँ?
तुम्हारी कुरेदती नज़रों से
छलनी वजूद का क्या जवाब दूँ?

बिन जवाबों के तुम मेरी औक़ात बताते हो
बिन जवाबों के तुम्हारे सारे इल्ज़ाम मैं अपनाती हूँ
फिर क्या बताऊँ कि कितना चुभता है
तुम्हारा ये अनुत्तरित प्रश्न
फिर क्या बताऊँ कि कितना टूटता है
तुम्हारे सवालिया आँखों से मेरा मन। 

- जेन्नी शबनम (सितम्बर 10, 2008)
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