बुधवार, 4 मई 2011

240. हवा ख़ून-ख़ून कहती है (पुस्तक - 85)

हवा ख़ून-ख़ून कहती है

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जाने कैसी हवा चल रही है
न ठंडक देती है न साँसें देती है
बदन को छूती है, तो जैसे सीने में बर्छी-सी चुभती है। 

हवा अब बदल गई है
यूँ चीखती चिल्लाती है मानो
किसी नवजात शिशु का दम अभी-अभी टूटा हो
किसी नव ब्याहता का सुहाग अभी-अभी उजड़ा हो
भूख से कुलबुलाता बच्चा भूख-भूख चिल्लाता हो
बीच चौराहे किसी का अस्तित्व लुट रहा हो और
उसकी गुहार पर अट्टहास गूँजता हो। 

हवा अब बदल गई है
ऐसे वीभत्स दृश्य दिखाती है मानो
विस्फोट की तेज़ लपटों के साथ बेगुनाह इंसानी चिथड़े जल रहे हों
ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए लोग घर में क़ैदी हो गए हों
पलायन की विवशता से आहत कोई परिवार अंतिम साँसें ले रहा हो
खेत-खलिहान जंगल-पहाड़ निर्वस्त्र झुलस रहे हों। 

जाने कैसी हवा है
न नाचती है, न गीत गाती है
तड़पती, कराहती, ख़ून उगलती है। 

हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में
और छिड़क देती है मंदिर-मस्जिद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनाती है। 

हवा अब बदल गई है, अब साँय-साँय नहीं कहती
अपनी प्रकृति के विरुद्ध, ख़ून-ख़ून कहती है,
हवा बदल गई है, ख़ून-ख़ून कहती है। 

- जेन्नी शबनम (20. 4. 2011)
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