शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

67. मुमकिन नहीं है (तुकान्त)

मुमकिन नहीं है

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परों को क़तर देना अब तो ख़ुद ही लाज़िमी है
वरना उड़ने की ख़्वाहिश, कभी मरती नहीं है। 

कोई अपना कहे, ये चाहत तो बहुत होती है
पर अपना कोई समझे, तक़दीर ऐसी नहीं है। 

अपना कहूँ, ये ज़िद तुम्हारी, बड़ा तड़पाती है
अब मुझसे मेरी ज़िन्दगी भी, सँभलती नहीं है। 

तुम ख़फा होकर चले जाओ, मुनासिब तो है
मैं तेरी हो सकूँ, कभी मुमकिन ही नहीं है

ग़ैरों के दर्द में, सदा रोते उसे है देखा 
'शब' अपनी व्यथा, कभी किसी से कहती नहीं है।

- जेन्नी शबनम (3. 7. 2009)
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