शनिवार, 31 दिसंबर 2011

309. बीत गया

बीत गया

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तय मौसम का एक मौसम
अच्छा हुआ बीत गया
हार का एक मनका
अच्छा हुआ टूट गया।  
समय का मौसम
मन का मनका
साथ-साथ बिलख पड़े
आस का पंछी रूठ गया। 
दोपहरी जलाती रही
साँझ कभी आती नहीं
ये भी किस्सा ख़ूब रहा
तमाशबीन मेरा मन रहा। 
हर कथा का सार वही
जीवन का आधार वही
वक़्त से रंज क्यों
फ़लसफ़ा मेरा कह रहा। 

- जेन्नी शबनम (31. 12. 2011)
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गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

308. एक अदद रोटी

एक अदद रोटी

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सुबह से रात
रोज़ सबको परोसता
गोल-गोल प्यारी-प्यारी
नर्म मुलायम रोटी,
मिल जाती
काश! उसे भी
कभी खाने को गर्म-गर्म रोटी,
ठिठुरती ठंड की मार
और उस पर गर्म रोटी की चाह
चार टुकड़ों में बँट सके
ले आया चोरी से एक रोटी,
ठंडी रोटी गर्म होने लगी
लड़ पड़े सब
जो झपट ले होगी उसकी
सभी को चाहिए पूरी की पूरी रोटी,
छीना-झपटी हाथा-पाई
धू-धू कर जल गई
हाय री क़िस्मत
लगी न किसी के हाथ रोटी,
छाती पीटो कि बदन तोड़ो
अब कल ही मिलेगी
बची-खुची बासी रोटी,
न इसके हिस्से
न उसके हिस्से
कुछ नहीं किसी के हिस्से
अरसे बाद चूल्हे ने खाई
एक अदद रोटी। 

- जेन्नी शबनम (21. 12. 2011)
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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

307. बेलौस नशा माँगती हूँ

बेलौस नशा माँगती हूँ

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सारे नशे की चीज़ मुझसे ही क्यों माँगती हो
कहकर हँस पड़े तुम
मैं भी हँस पड़ी
तुमसे न माँगू तो किससे भला
तुम ही हो नशा
तुम से ही ज़िन्दगी।  

तुम्हारी हँसी बड़ी प्यारी लगती है
कहकर हँस पड़ती हूँ
मेरी शरारत से वाक़िफ़ तुम
सतर्क हो जाते हो
एक संजीवनी लब पे
मौसम में पसरती है खुमारी। 

जाने किस नशे में तुमने कहा
मेरा हाथ छोड़ रही हो
और झट से तुम्हारा हाथ थाम लिया
धत्त! ऐसे क्यों कहते हो
तुम ही तो नशा हो
तुमसे अलग कहाँ रह पाऊँगी। 

तुम कहते कि शर्मीले हो
मैं ठठाकर हँस पड़ती हूँ
हे भगवान्! तुम शर्मीले!
तुम्हारी सभी शरारतें मालूम है मुझे
याद है, वो जागते सपनों-सी रात
जब होश आया और पल भर में सुबह हो गई। 

ज़िन्दगी उस दिन फिर से खिल गई
जब तुमने कहा चुप-चुप क्यों रहती हो
सुलगते अलाव की एक चिंगारी मुझपर गिरी
और मेरे ज़ेहन में तुम जल उठे
तुम्हारा नशा पसरा मुझपर
ज़िन्दगी ने शायद पहली उड़ान भरी। 

तुम्हारी दी हुई हर चीज़ पसंद है
हर एहसास बस तुमसे ही
एक ही जीवन
पल में समेट लेना चाहती हूँ
सिर्फ़ तुम ही तो हो
जिससे अपने लिए बेलौस नशा माँगती हूँ। 

- जेन्नी शबनम (दिसम्बर 20, 2011)
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शनिवार, 17 दिसंबर 2011

306. अब डूबने को है

अब डूबने को है

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बहाने नहीं हैं पलायन के
न ही कोई अफ़साने हैं मेरे
न कोई ऐसा सच
जिससे तुम भागते हो
और सोचते हो कि मुझे तोड़ देगा,
सारे सच जो अग्नि से प्रज्वलित होकर निखरे हैं
तुम जानते हो दोस्त
वो मैंने ही जलाए थे,
पल-पल की बातें जब भारी पड़ गई
एक दोने में लपेटकर नदी में बहा दिया 
फिर वो दोना एक मछुआरे ने मुझ तक पहुँचा दिया
क्योंकि उसपर मैंने अपने नाम लिख दिए थे
ताकि जब जल में समाए तो
अपने साथ मुझे भी समाहित कर ले,
अब उस दोने को जला रही हूँ
सारे सच पक-पककर
गाढे रंग के हो गए हैं,
वो देखो मेरे दोस्त
सूरज-सा तपता मेरा सच
अब डूबने को है। 

- जेन्नी शबनम (17. 11. 2011)
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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

305. जाने कहाँ गई वो लड़की (पुस्तक - 31)

जाने कहाँ गई वो लड़की

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सफ़ेद झालर वाली फ्रॉक पहने
जिसपे लाल-लाल फूल सजे
उछलती-कूदती, जाने कहाँ गई वो लड़की। 
बकरी का पगहा थामे, खेतों के डरेर पर भागती
जाने क्या-क्या सपने बुनती, एक अलग दुनिया उसकी।  
भक्तराज को भकराज कहती
क्योंकि क-त संयुक्त में उसे 'क' दिखता है
उसके अपने तर्क, अजब जिद्दी लड़की। 
बात बनाती ख़ूब, पालथी लगाकर बैठती
क़लम दवात से लिखती रहती, निराली दुनिया उसकी। 
एक रोज़ सुना शहर चली गई, गाँव की ख़ुशबू साथ ले गई
उसके सपने उसकी दुनिया, कहीं खो गई लड़की। 
साँकल की आवाज़, किवाड़ी की चरचराहट
जानती हूँ वो नहीं, पर इंतज़ार रहता अब भी। 
शायद किसी रोज़ धमक पड़े, रस्सी कूदती-कूदती
दही-भात खाने को मचल पड़े, वो चुलबुली लड़की। 
जाने कहाँ गई, वो मानिनी मतवाली
शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई
उछलती-कूदती वो लड़की। 

- जेन्नी शबनम (14. 11. 2011)
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शनिवार, 10 दिसंबर 2011

304. आदम जात की बात नहीं

आदम जात की बात नहीं 

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प्यार की उम्र क्या होती है?   
साथ जीने की शर्त क्या होती है?   
अजब सवाल पूछते हो   
प्यार कि उम्र कभी ख़त्म नहीं होती   
प्यार में कोई शर्त नहीं होती।    
फिर ये कैसा प्यार   
हर बार एक नयी अनकही शर्त   
जिसे मान लेना होता है।    
उम्र के ढलान पर   
तुम्हारी निगाहें किसे ढूँढती हैं?   
साथ तो होते हैं लेकिन   
उबलती शिराएँ   
समझते हो न   
सहन नहीं होती।   
सारी शर्तों को मानते हुए   
हर अनकहा समझते हुए   
फिर ऐसा क्यों?   
हाँ सच है   
रूह से रूह की बात   
परी कथाओं की बात है   
आदम जात की बात नहीं।    

- जेन्नी शबनम (10. 12. 2011) 
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सोमवार, 5 दिसंबर 2011

303. अपनी-अपनी धुरी (पुस्तक - 106)

अपनी-अपनी धुरी

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अपनी-अपनी धुरी पर चलते, पृथ्वी और ग्रह-नक्षत्र
जीवन-मरण हो या समय का रथ
नियत है सभी की गति, धुरी और चक्र। 
बस एक मैं, अपनी धुरी पर नहीं चलती
कभी लगाती अज्ञात के चक्कर
कभी वर्जित क्षेत्रों में घुस
मंथर तो कभी विद्युत से भी तेज
अपनी ही गति से चलती। 
न जाने क्यों इतनी वर्जनाएँ हैं
जिन्हें तोड़ना सदैव कष्टप्रद है
फिर भी उसे तोड़ना पड़ता है
अपने जीने के लिए, धुरी से हटकर चलना पड़ता है। 
बिना किसी धुरी पर चलना
सदैव भय पैदा करता है
चोट खाने की प्रबल संभावना होती है
कई बार सिर्फ़ पीड़ा नहीं मिलती, आनन्द भी मिलता है
पर कहना कठिन है
आने वाला पल किस दशा में ले जाएगा
जीवन को कौन-सी दिशा देगा
जीवन सँवरेगा, या फिर सदा के लिए बिखर जाएगा। 
कैसे समझूँ, बिना धुरी के लक्ष्यहीन पथ
नियति है या मेरी वांछित जीवन दिशा
जिस पर चलकर, पहुँच जाऊँगी, किसी धुरी पर
और चल पडूँगी, नियत गति से
बिना डगमगाए, अपनी राह
जो मेरे लिए पहले से निर्धारित है। 

- जेन्नी शबनम (4. 12. 2011)
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मंगलवार, 22 नवंबर 2011

302. चुपचाप सो जाऊँगी

चुपचाप सो जाऊँगी 

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इक रोज़ तेरे काँधे पे
यूँ चुपचाप सो जाऊँगी
ज्यूँ मेरा हो वस्ल आख़िरी
और जहाँ से हो रुख़सती। 

जो कह न पाए तुम कभी
चुपके से दो बोल कह देना
तरसती हुई मेरी आँखें में
शबनम से मोती भर देना। 

ख़फा नहीं तक़दीर से अब
आख़िरी दम तुझे देख लिया
तुम मेरे नहीं मैं तेरी रही
ज़िन्दगी ने दिया, बहुत दिया। 

न कहना है कि भूल जाओ
न कहूँगी कि याद रखना
तेरी मर्ज़ी से थी चलती रही
जो तेरा फ़ैसला वो मेरा फ़ैसला। 

- जेन्नी शबनम (22. 11. 2011)
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बुधवार, 16 नवंबर 2011

301. उम्र कटी अब बीता सफ़र (पुस्तक - 47)

उम्र कटी अब बीता सफ़र

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बचपन कब बीता बोलो
हँस पड़ा आईना ये कहकर
काले गेसुओं ने निहारा ख़ुद को
चाँदी के तारों से लिपटाया ख़ुद को। 

चाँदी के तारों ने पूछा
माथे की शिकन से हँसकर
किसका रस्ता अगोरा तुमने?
क्या ज़िन्दगी को हँसकर जीया तुमने?

ज़िन्दगी ने कहा सुनो जी
हँसने की बारी आई थी पलभर
फिर दिन महीना और बीते साल
समय भागता रहा यूँ ही बेलगाम। 

समय ने कहा फिर
ज़रा हौले ज़रा तमककर
नहीं हौसला तो फिर छोड़ो जीना
'शब' का नहीं कोई साथी रहेगी तन्हा। 

'शब' ने समझाया ख़ुद को
अपने आँसू ख़ुद पोछ फिर हँसकर,
बेरहम तक़दीर ने भटकाया दर-ब-दर
अच्छा है, लम्बी उम्र कटी, अब बीता सफ़र!

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2011)
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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

300. अल्फ़ाज़ उगा दूँ (क्षणिका)

अल्फ़ाज़ उगा दूँ

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सोचती हूँ कुछ अल्फ़ाज़ उगा दूँ
तितर-बितरकर हर तरफ़ पसार दूँ
चुक गए हैं मेरे अंतस् से सभी
शायद किसी निर्मोही पल में
उनकी ज़रुरत पड़ जाए। 

- जेन्नी शबनम (11. 11. 2011)
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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

299. भय

भय

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भय!
किससे भय?
ख़ुद से?
ख़ुद से कैसा भय?
असंभव!
पर ये सच है
अपने आप से भय
ख़ुद के होने से भय
ख़ुद के खोने का भय
अपने शब्दों से भय
अपने प्रेम से भय
अपने क्रोध से भय
अपने प्रतिकार से भय
अपनी चाहत का भय
अपनी कामना का भय
कुछ टूट जाने का भय
सब छूट जाने का भय।  
कुछ अनजाना अनचीन्हा भय
ज़िन्दगी के साथ चलता है
ख़ुद से ख़ुद को डराता है। 
कोई निदान?
असंभव!
जीवन से मृत्युपर्यंत
भय भय भय
न निदान न निज़ात!

- जेन्नी शबनम (7. 11. 2011)
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रविवार, 6 नवंबर 2011

298. ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

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तुम्हारी निशानदेही पर
साबित हुआ कि ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है
और कहाँ-कहाँ से उजड़ गई है
। 
एक लोकोक्ति की तरह
तुम बसे हो मुझमें
जिसे पहर-पहर दोहराती हूँ
या फिर देहात की औरतें
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए लोकगीत गाती हैं
मुझमें वैसे ही उतर गए तुम
हर दिवस के अनुरूप
। 
जब मैं रात्रि में अपने केंचुल में समाती हूँ
जैसे तुम्हारे आवरण को ओढ़ लिया हो
और महफूज़ हूँ
फिर ख़ुद में ख़ुद को तलाशती हूँ
तुम झटके से आ जाते हो
जैसे रात के सन्नाटे में
पहरु के बोल और झींगुर के शोर
। 
मेरे केंचुल को किसी ने जला दिया
मैं इच्छाधारी
जब तुम्हारे संग अपने सच्चे वाले रंग में थी
मैं महरूम कर दी गई
अपनी जात से और औक़ात से
। 
अब तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
ताकि वापस ज़िन्दगी मिले
और तुम्हारी निशानदेही पर
अपना नया केंचुल उगा लूँ
जिससे मेरी पहचान हो
और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
जीती हूँ
। 

- जेन्नी शबनम (6. 11. 2011)
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शनिवार, 5 नवंबर 2011

297. चक्रव्यूह (पुस्तक - 74)

चक्रव्यूह

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कैसे-कैसे इस्तेमाल की जाती हूँ
अनजाने ही, चक्रव्यूह में घुस जाती हूँ
जानती हूँ, मैं अभिमन्यु नहीं
जिसने चक्रव्यूह भेदना गर्भ में सीखा
मैं स्त्री हूँ, जो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से
हर बार चक्रव्यूह में समाकर
एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा!

- जेन्नी शबनम (1. 11. 2011)
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बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

296. दीपावली (दीपावली पर 11 हाइकु) पुस्तक - 20

दीपावली
(दीपावली पर 11 हाइकु)

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1.
दीपों की लड़ी
लक्ष्मी की आराधना
दीवाली आई।

2.
लक्ष्मी की पूजा
पटाखों का है शोर
दीवाली पर्व।

3.
दीपक जले
घर अँगना सजे
आई दीवाली।

4.
है दीपावली
रोशनी का त्योहार
दीप-बहार।

5.
श्री राम लौटे
अमावस्या की रात
दीवाली मने।

6.
अयोध्या वासी
मनाए दीपावली
राम जो लौटे।

7.
दीया जो जले
जगमग चमके
दीवाली सजे।

8.
दीया के संग
घर-अँगना जागे
दीवाली रात।

9.
प्रकाश-पर्व
जगमग दीवाली
खिलता मन।

10.
रोशनी फैली
घर बाहर धूम
आयी दीवाली।

11.
चमके-गूँजे
दीप और पटाखे
दीपावली है।

- जेन्नी शबनम (21. 10. 2011)
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रविवार, 23 अक्तूबर 2011

295. मेरे शब्द (पुस्तक - 41)

मेरे शब्द

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बहुत कठिन है, पार जाना
ख़ुद से, और उन तथाकथित अपनों से
जिनके शब्द मेरे प्रति
सिर्फ़ इसलिए निकलते हैं कि
मैं आहत हो सकूँ,
खीझकर मैं भी शब्द उछालूँ
ताकि मेरे ख़िलाफ़
एक और मामला
जो अदालत में नहीं
रिश्तों के हिस्से में पहुँचे
और फिर शब्दों द्वारा
मेरे लिए, एक और मानसिक यंत्रणा। 
नहीं चाहती हूँ
कि ऐसी कोई घड़ी आए 
जब मैं भी बेअख़्तियार हो जाऊँ
और मेरे शब्द भी। 
मेरी चुप्पी अब सीमा तोड़ रही है
जानती हूँ, अब शब्दों को रोक न सकूँगी
ज़ेहन से बाहर आने पर
मुमकिन है ये तरल होकर
आँखों से बहे या 
फिर शीशा बनकर
उन अपनों के बदन में घुस जाए
जो मेरी आत्मा को मारते रहते हैं। 
मेरे शब्द
अब संवेदनाओं की भाषा 
और दुनियादारी समझ चुके हैं। 

- जेन्नी शबनम (22. 10. 2011)
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शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

294. बाध्यता नहीं (क्षणिका)

बाध्यता नहीं

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ये मेरी चाह थी कि तुम्हें चाहूँ और तुम मुझे
पर ये सिर्फ़ मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं। 

- जेन्नी शबनम (9. 10. 2011)
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बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

293. ज़िन्दगी (तुकांत)

ज़िन्दगी

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ज़िन्दगी तेरी सोहबत में, जीने को मन करता है 
चलते हैं कहीं दूर कि, दुनिया से डर लगता है। 

हर शाम जब अँधेरे, छीनते हैं मेरा सुकून
तेरे साथ ऐ ज़िन्दगी, मर जाने को जी करता है। 

अब के जो मिलना, संग कुछ दूर चलना
ढलती उमर में, तन्हाई से डर लगता है। 

आस टूटी नहीं, तुझसे शिकवा भी है
ग़र तू साथ नहीं, फिर भ्रम क्यों देता है। 

'शब' कहती थी कल, ऐ ज़िन्दगी तुझसे
छोड़ते नहीं हाथ, जब कोई पकड़ता है। 

ऐ ज़िन्दगी, अब यहीं ठहर जा
तुझ संग जीने को, मन करता है। 

- जेन्नी शबनम (16. 10. 2011)
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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

292. क़र्ज़ अदायगी

क़र्ज़ अदायगी

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तुमने कभी स्पष्ट कहा नहीं
शायद संकोच हो
या फिर सवालों से घिर जाने का भय
जो मेरी बेदख़ली पर तुमसे किए जाएँगे
जो इतनी नज़दीक वो ग़ैर कैसे?
पर हर बार तुम्हारी बेरुखी
इशारा करती है कि
ख़ुद अपनी राह बदल लूँ
तुम्हारे लिए मुश्किल न बनूँ
अगर कभी मिलूँ भी तो उस दोस्त की तरह
जिससे महज़ फ़र्ज़ अदायगी-सा वास्ता हो
या कोई ऐसी परिचित
जिससे सिर्फ़ दुआ सलाम का नाता हो। 
जानती हूँ
दूर जाना ही होगा मुझे
क्योंकि यही मेरी क़र्ज़ अदायगी है
थोड़े पल और कुछ सपने
उधार दिए थे तुमने
दान नहीं!

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2011)
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मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

291. मुक्ति पा सकूँ

मुक्ति पा सकूँ

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मस्तिष्क के जिस हिस्से में
विचार पनपते हैं
जी चाहता है उसे काटकर फेंक दूँ
न कोई भाव जन्म लेंगे
न कोई सृजन होगा। 
कभी-कभी अपने ही सृजन से भय होता है
जो रच जाते हैं 
वो जीवन में उतर जाते हैं
जो जीवन में उतर गए
वो रचना में सँवर जाते हैं,
कई बार पीड़ा लिख देती हूँ
और त्रासदी जी लेती हूँ
कई बार अपनी व्यथा
जो जीवन का हिस्सा है
पन्नों पर उतार देती हूँ। 
विचार का पैदा होना
अवश्य बाधित करना होगा
अविलम्ब
ताकि वर्तमान और भविष्य के विचार
और जीवन से मुक्ति पा सकूँ। 

-जेन्नी शबनम (11. 10. 2011)
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सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

290. तब हुआ अबेर (क्षणिका)

तब हुआ अबेर

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जब मिला बेर, तब हुआ अबेर
मचा कोलाहल, चित्र दिया उकेर
छटपटाया मन, शब्द दिया बिखेर
बिछा सन्नाटा, अब जगा अँधेर
'शब' सो गई, तब हुआ सबेर। 

- जेन्नी शबनम (1. 10. 2011)
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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

289. मेरी हथेली

मेरी हथेली

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अपनी एक हथेली तुम्हें सौंप आई
जब तुमसे मिली थी 
जिसकी लकीरों में है मेरी तक़दीर 
और मेरी तक़दीर सँवारने की तजवीज़।   
एक हथेली अपने पास रख ली 
जो वक़्त के हाथों ज़ख़्मी है 
जिसकी लकीरों में है मेरा अतीत 
और मेरे भविष्य की उलझी तस्वीर।   
विस्मृत नहीं करना चाहती कुछ भी 
जो मैंने पाया या खोया 
या फिर मेरी वो हथेली 
जो तुमने किसी दिन गुम कर दी
क्योंकि सहेजने की आदत तुम्हें नहीं। 

- जेन्नी शबनम (4. 10. 2011)
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मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

288. भस्म होती हूँ (क्षणिका)

भस्म होती हूँ

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अक्सर सोचकर हत्प्रभ हो जाती हूँ
चूड़ियों की खनक हाथों से निकल चेहरे तक
कैसे पहुँच जाती है?
झुलसता मन अपना रंग झाड़कर
कैसे दमकने लगता है?
शायद वक़्त का हाथ मेरे बदन में घुसकर
मुझसे बग़ावत करता है
मैं अनचाहे हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर अपने जिस्म से लिपट
अपनी ही आग में भस्म होती हूँ। 

- जेन्नी शबनम (1. 9. 2011)
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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

287. अपशगुन

अपशगुन

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उस दिन तुम जा रहे थे
कई बार आवाज़ दी
कि तुम मुड़ो और
मैं हाथ हिलाकर तुम्हें विदा करूँ,
लौटने पर तुम कितना नाराज़ हुए
जाते हुए को आवाज़ नहीं देते
अपशगुन होता है
कितना भी ज़रूरी हो न पुकारा करूँ तुम्हें। 
देखो न
सच में अपशगुन हो गया
पर तुम्हारे लिए नहीं मेरे लिए,
सोचती हूँ
मेरे लिए अपशगुन क्यों हुआ?
तुमने तो कभी भी आवाज़ नहीं दी मुझे। 
तुम उस दिन आए थे
अंतिम बार मिलने
अलविदा कहने के बाद मुड़े नहीं
ज़रा देर को भी रुके नहीं
जैसे हमेशा जाते हो चले गए
जैसे कुछ हुआ ही नहीं। 
मैं जानती थी कि
तुम्हारे पास मेरे लिए कोई जगह नहीं
फिर भी एक कोशिश थी
कि शायद...
जानती थी कि ये मुमकिन नहीं
फिर भी...
तुम मेरी ज़िन्दगी से जा रहे थे
कहीं और ज़िन्दगी बसाने,
मन किया कि तुमको आवाज़ दूँ
तुम रूक जाओ
शायद वापस आ जाओ,
पर आवाज़ नहीं दे सकती थी
तुम्हारा अपशगुन हो जाता। 

- जेन्नी शबनम (27. 8. 2011)
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शनिवार, 24 सितंबर 2011

286. ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं (तुकांत)

ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं

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चलते-चलते मैं चलती रही, ज़िन्दगी कभी ठहरी नहीं
ख़ुद को जब रोक के देखा, ज़िन्दगी तो बढ़ी ही नहीं। 

क़िस्मत को कैसा रोग लगा, ज़िन्दगी कभी हँसती नहीं
वक़्त ने कैसा ज़ख़्म दिया, ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं। 

कई भ्रम पाले जीने के वास्ते, ज़िन्दगी भ्रम से गुज़रती नहीं
रोज़-रोज़ तड़पती है, ज़िन्दगी चाहती मगर मरती नहीं। 

थक-थक गई चल-चलकर, ज़िन्दगी चलती पर बढ़ती नहीं
दम टूट-टूट जाता है मगर, ज़िन्दगी हारती पर मरती नहीं। 

क्यों न करूँ सवाल तुझसे ख़ुदा, ज़िन्दगी क्या सिर्फ़ मेरी नहीं?
'शब' मग़रूर बेवफ़ा ही सही, ज़िन्दगी क्या सिर्फ़ उसकी नहीं?

- जेन्नी शबनम (23. 9. 2011)
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बुधवार, 21 सितंबर 2011

285. मैं तेरी सूरजमुखी

मैं तेरी सूरजमुखी

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ओ मेरे सूरज
मैं तेरी सूरजमुखी (सूर्यमुखी)
बाट जोहते-जोहते मुर्झाने लगी
कई दिनों से तू आया नहीं
जाने कौन-सी राह पकड़ ली तूने
कौन ले गया तुझे?
क्या ये भी बिसर गया
कि सारा दिन तुझे ही तो निहारती हूँ
जीवन ऐसे ही तेरे संग बिताती हूँ
तुम चाहो न चाहो
तेरे बिना रह नहीं सकती
चाहूँ फिर भी तुम बिन खिल नहीं सकती
जानती हूँ तुम्हारा साथ बस दिन भर का है
फिर तू अपनी राह मैं अपनी राह
अगली सुबह फिर तेरी राह
लड़ लिया करो न, बादलों से मेरे लिए
ओ मेरे सूरज
मैं तेरी सूरजमुखी!  

- जेन्नी शबनम (17. 9. 2011)
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गुरुवार, 15 सितंबर 2011

284. चाँद-सितारे / chaand-sitaare

चाँद-सितारे

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बचपन में जब चाँद-सितारों के लिए मचलती थी
अम्मा फ़्राक में ज़री-गोटे से, चाँद-तारे टाँक देती थी
बाबा चाँद-सी गोल चौअन्नी, बड़े लाड़ से देते थे
मैं चाँद-सितारे पा लेने के भ्रम में, ख़ूब इतराती थी।

अम्मा-बाबा चुपके से, एक-एक चौअन्नी का हिसाब लगाते थे
दो चौअन्नी में कितने दिन, चाँद-सी रोटी पक सकती थी
दो वक़्त की भूख भूल जाते, जब लाड़ली उनकी इठलाती थी
एक चौअन्नी का ज़री-गोटा, एक चौअन्नी गुल्लक में भरती थी।

अब भैया ने, चाँद-सितारों वाला घर, ढूँढ दिया
चाँद-सितारों की खनक में, खिल जाएगी बहना
अम्मा-बाबा हार गए, दे न पाए, नकली वाला चाँद-सितारा
भैया ने ढूँढ दिया, जहाँ चंदा-सी चमकेगी बहना।

आज देखो, अब भी रेखाएँ नहीं बनीं, मेरी ख़ाली हथेली पर
रोज़-रोज़ देख तरसती हूँ, पा लूँ चाँद-तारे अपनी हथेली पर
तुम्हारा वादा था, भर दोगे दामन मेरा, चाँद-सितारों से
सात फ़ेरों सात वचनों बाद, मुझसे पहली बार आलिंगन पर।

अम्मा-बाबा, चौअन्नी और ज़री-गोटे से, मुझे भ्रम देते थे
भैया तुम्हारे घर की झिलमिल रौशनी से, भ्रम देता रहता
तुमने चाँद-सितारों की जगह, उपकृत कर मुझे ही जड़ दिया
अपने घर के झूमर में, बेमियाद चमकाऊँ, तुम्हारा घर-अँगना।

कब तक मन को तसल्ली दूँ, हुई बेनूर, चाँद-सितारों का भ्रम पालूँ
उन बेजान फ़्राक में टँके, ज़री-गोटे की तरह
कब तक झिलमिल चमकती रहूँ, पथराई आँखें, घर गुलज़ार करूँ
तुम्हारे घर में सजे, झाड़-फ़ानूस की तरह।

बोलो, कब ला दोगे मुझे ज़मीन पर, अब इस भ्रम से मन नहीं बहलता
क्या भर दोगे मेरी अँजुरी में, कुछ चाँद-सितारों-सा पल तुम्हारा
बोलो, लौटा दोगे वो वक़्त, जब निढ़ाल ताकती रही, असली वाला चाँद-सितारा
क्या भर दोगे हथेली की लकीरों में, तक़दीर का सच्चा चाँद-सितारा।

आसमान के चाँद-सितारे, अब कब माँगती हूँ तुमसे
बस चाँद-सितारों-सा कुछ पल, माँगती हूँ तुमसे
भर दो दामन में मेरे, अपने कुछ चाँद-सितारे
बस कुछ पल तुम्हारे हैं, मेरे अपने चाँद-सितारे।

- जेन्नी शबनम (नवम्बर, 2008)
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chaand-sitaare

bachpan mein jab chaand-sitaaron ke liye machaltee thee
amma frock mein zari-gote se, chaand-taare taank detee thee
baaba chaand see gol chauanni, bade laad se dete they
main chaand-sitaare paa lene ke bhrum mein, khub itraatee thee.

amma baba chupke se, ek-ek chauanni ka hisaab lagaate they
do chauanni mein kitne din, chaand see roti pak saktee thee
do waqt kee bhookh bhool jate, jab laadli unki ithlaatee thee
ek chauanni ka zari-gota, ek chauanni gullak mein bhartee thee.

ab bhaiya ne, chaand-sitaaron wala ghar, dhundh diya
chaand-sitaaron kee khanak mein, khil jaayegi bahna
amaa baba haar gaye, de na paaye, nakli wala chaand-sitaara
bhaiya ne dhundh diya, jahaan chanda see chamkegi bahna.

aaj dekho, ab bhi rekhaayen nahin bani, meri khaali hatheli par
roz-roz dekh tarasti hun, paa lun chaand-taaren apni hatheli par
tumhara wada thaa, bhar doge daaman mera, chaand-sitaaron se
saat feron saat wachanon baad, mujhse pahli baar aalingan par.

amma baba, chauanni aur zari-gote se, mujhe bhrum dete they
bhaiya, tumhare ghar kee jhilmilati raushni se, bhrum deta rahta
tumne, chaand-sitaaron kee jagah, upakrit kar mujhko hi jad diya
apne ghar ke jhumar mein, bemiyaad chamkaaun, tumhaara ghar-angna.

kab tak man ko tasalli doon, hui benoor, chaand-sitaaron ka bhrum paaloon
un bejaan frock mein tanke, zari-gote kee tarah
kab tak jhilmil chamakti rahun, pathraai aahkhen, ghar gulzaar karoon
tumhaare ghar mein saje, jhaad-fanoos kee tarah.

bolo, kab laa doge mujhe zameen par, ab is bhrum se man nahi bahalta
kya bhar doge meri anjuri mein, kuchh chaand-sitaaron-sa pal tumhaara
bolo, lauta doge wo waqt, jab nidhaal taakti rahee, asli wala chaand-sitaara
kya bhar doge hatheli kee lakiron mein, takdir ka sachcha chaand-sitaara.

aasmaan ka chaand-sitaara, ab kab maangti hun tumse
bas chaand-sitaaron-sa kuchh pal, maangti hun tumse
bhar do daaman mein mere, apna kuchh chaand-sitaara
bas kuchh pal tumhara hai, mera apnaa chaand-sitaara.

- Jenny Shabnam (November, 2008)
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मंगलवार, 13 सितंबर 2011

283. अभिवादन की औपचारिकता

अभिवादन की औपचारिकता

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अभिवादन में पूछते हैं आप-
कैसी हो? क्या हाल है? सब ठीक है ?
करती हूँ मैं, निःसंवेदित अविलम्बित रटा-रटाया उल्लासित अभिनंदन-
अच्छी हूँ! सब कुशल मंगल है! आप कैसे हैं?

क्या सचमुच, कोई जानने को उत्सुक है, किसी का हाल?
क्या सचमुच, हम सभी बता सकते, किसी को अपना हाल?
ये प्रचलित औपचारिकता के शब्द हैं, नहीं चाहता सुनना कोई किसी का हाल। 
फिर भी पूछ्तें हैं सभी, मैं भी पूछती हूँ, मन में समझते हुए भी दूसरे का हाल। 

क्या सुनना चाहेंगे मेरा हाल? क्या दूसरों की पीड़ा जानना चाहेंगे? क्या सुन सकेंगे मेरा सच?
मेरा कुंठित अतीत और व्याकुल वर्तमान, मेरा सम्पूर्ण हाल, जो शायद आपका भी हो थोड़ा सच। 
मैं तो जुटा न पाई हूँ, आप भी कहाँ कर पाए हैं, अनौपचारिक बन सच बताने की हिम्मत
आज बता ही देती हूँ अपनी सारी सच्चाई, कर ही देती हूँ हमारे बीच की औपचारिकता का अंत। 

बताऊँ कैसे, मेरा वो दर्द, वो अवसाद, वो दंश, जो पल-पल मेरे मन को खंडित करता है
बताऊँ कैसे, मेरा वो सच, जो मेरे अंतर्मन की जागीर है, मन के तहखाने में दफ़न है
जानती हूँ, मेरा सच सुनकर, आप रूखी हँसी हँस देंगे, हमारे बीच के रहस्यमय आवरण हट जाएँगे
आप भूले से भी हाल पूछेंगे, अच्छा ही होगा, अब आप कभी मुझसे औपचारिकता नहीं निभाएँगे। 

कैसे बताऊँ, कि मेरे मन में कितनी टीस है, शारीर में कितनी पीर है
उम्र और वक़्त का एक-एक ज़ख़्म, मुझसे मुझको छीनता है
अपनों की ख़्वाहिश को पालने में, ख़ुद को पल-पल कितना मारना होता है
एक विफलता संबंधों की, एक लाचारगी जीने की, मन कितना तड़पता है। 

कैसे बताऊँ कि तमाम कोशिशों के बावजूद, समाज की कसौटी पर, मैं खरी नहीं उतरी हूँ
घर के बिखराव को बचाने में, क्षण-क्षण कितना मैं ढहती बिखरती हूँ
वक़्त की कमी या फ़ुर्सत की कमी, एक बहाना-सा बना, सब से मैं छिपती हूँ
त्रासदी-सा जीवन-सफ़र मेरा, पर घर का सम्मान, सदा उल्लासित दिखती हूँ। 

कैसे बताऊँ कि क्यों संबंधों की भीड़ में, मैं एक अपना तलाशती हूँ
क्यों दुनिया की रंगीनियों में खोकर भी, मैं रंगहीन हूँ
क्यों छप्पन व्यंजनो के सामार्थ्य के बाद भी, मैं भूखी-प्यासी हूँ
क्यों जीवन से, सहर्ष पलायान को, सदैव तत्पर रहती हूँ।  

नहीं-नहीं, नहीं बता पाऊँगी सम्पूर्ण सत्य, मंज़ूर है मुखौटा ओढ़ना
हमारी रीति-संस्कृति ने सिखाया है- कटु सत्य नहीं बोलना
हमारी तहज़ीब है, आँसुओं को छुपा दूसरों के सामने मुस्कुराना
सलीका यूँ भी अच्छा होता नहीं, यूँ अपना भेद खोलना। 

अभिवादन की औपचारिकता है, किसी का हाल पूछना
जज़्बात की बात नहीं, महज चलन है ये पूछना
जान-पहचान की चिर-स्थाई है ये परंपरा
औपचारिकता ही सही, बस यूँ ही, हाल पूछते रहना। 

- जेन्नी शबनम (मई, 2009)
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सोमवार, 12 सितंबर 2011

282. लौट चलते हैं अपने गाँव

लौट चलते हैं अपने गाँव

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मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से,  
चलो, लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं 
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है 
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाँती बाँधे नन्हकी सिलेट पे पेंसिल घिसती है
अजोर हुए अब तो देर हुई
बड़का बऊआ अपना बोरा-बस्ता लेकर
स्कूल न जाने की ज़िद में खड़ा है
गाँव के मास्टर साहब
आज ले ही जाने को अड़े हैं
क्या ग़ज़ब नज़ारा है
बड़ा अजब माजरा है, 
अँगने में रोज़ अनाज पसरता है
जाँता में रोज़ दाल दराता है
गेहूँ पीसने की अब बारी है
भोर होते ही रोटी भी तो पकानी है
सामने दौनी-ओसौनी भी जारी है
ढेंकी से धान कूटने की आवाज़ लयबद्ध आती है,  
खेत से अभी-अभी तोड़ी
घिउरा और उसके फूल की तरकारी
ज़माना बीता पर स्वाद आज भी वही है
दोपहर में जन सब के साथ पनपियाई
अलुआ नमक और अचार का स्वाद
मन में आज भी ताज़ा है,  
पगहा छुड़ाते धीरे-धीरे चलते बैलों की टोली
खेत जोतने की तैयारी है  
भैंसी पर नन्हका लोटता है
जब दोपहर बाद घर लौटता है,  
गोड़ में माटी की गंध
घूर तापते चचा की कहानी
सपनों सी रातें
अब मुझे बुलाती है।  
चलो, लौट चलते हैं
अपने गाँव
अपने घर चलते हैं 
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अजोर - रोशनी
पहरू - रात्रि में पहरेदारी करने वाला
चटाई बीनती - चटाई बुनना
गाँती - ठण्ड से बचाव के लिए बच्चों को एक विशेष तरीके से चादर / शॉल से लपेटना
बोरा-बस्ता - बैठने के लिए बोरा और किताब का झोला
जाँता - पत्थर से बना हाथ से चला कर अनाज पीसने का यंत्र
दराता - दरना
दौनी - पौधों से धान को निकालने के लिए इसे काटकर इकत्रित कर उस पर बैल चलाया जाता है
ओसौनी - दौनी होने के बाद धान को अलग करने की क्रिया
ढेंकी - लकड़ी से बना यंत्र जिसे पैर द्वारा चलाया जाता है और अनाज कूटा जाता है
घिउरा - नेनुआ
जन - काम करने वाले मज़दूर / किसान
पनपियाई - दोपहर से पहले का खाना
अलुआ - शकरकंद
गोड़ - पैर
घूर - अलाव
चचा - चाचा
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- जेन्नी शबनम ( जुलाई 2003)
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बुधवार, 7 सितंबर 2011

281. अनुबंध

अनुबंध

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एक अनुबंध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबंध है प्रेम और घृणा के बीच
कभी साथ-साथ फलित न होना 
एक अनुबंध है स्वप्न और यथार्थ के बीच
कभी सम्पूर्ण सत्य न होना 
एक अनुबंध है धरा और गगन के बीच
कभी किसी बिंदु पर साथ न होना 
एक अनुबंध है आकांक्षा और जीवन के बीच
कभी सम्पूर्ण प्राप्य न होना 
एक अनुबंध है मेरे मैं और मेरे बीच
कभी एकात्म न होना!

- जेन्नी शबनम (27. 1. 2009)
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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

280. जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ

जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ

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मन में कुछ दरक-सा जाता है
जब क्षितिज पर अस्त होता सूरज देखती हूँ
ज़िन्दगी बार-बार डराती है
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

सपने ध्वस्त हो रहे हैं 
हवा मेरी सारी निशानियाँ मिटा रही है
वुजूद घुटता-सा है
ज़ेहन में मवाद की तरह यादें रिसती हैं
अपेक्षाओं की मुराद दम तोड़ती है
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

सहेजे सपनों की विफलता का मलाल
धराशायी अरमान
मन की विक्षिप्तता
असह्य हो रहा अब ये संताप
मन डर जाता है जीवन के इस रीत से
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

हूँ अब ख़ामोश
मूक-बधिर
निहार रही अपने जीवन का
अरूप अवशेष। 

- जेन्नी शबनम (11. 9. 2008)
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शनिवार, 3 सितंबर 2011

279. दर्द की मियाद और कितनी है (क्षणिका)

दर्द की मियाद और कितनी है

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कोई भी दर्द उम्र से पहले ख़त्म नहीं होता
किससे पूछूँ कि
दर्द की मियाद और कितनी है। 

- जेन्नी शबनम (2. 9. 2011)
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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

278. फ़िज़ूल हैं अब (क्षणिका)

फ़िज़ूल हैं अब

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फ़िज़ूल हैं अब
इसलिए नहीं कि सब जान लिया
इसलिए कि जीवन बेमक़सद लगता है
जैसे चलती हुई साँसें या फिर बहती हुई हवा
रात की तन्हाई या फिर दिन का उजाला
दरकार नहीं, पर ये रहते हैं अनवरत मेरे साथ चलते हैं
मैं और ये सब, फ़िज़ूल हैं अब। 

- जेन्नी शबनम (28. 8. 2011)
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सोमवार, 29 अगस्त 2011

277. शेष न हो (क्षणिका)

शेष न हो

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सवाल भी ख़त्म और जवाब भी
शायद ऐसे ही ख़त्म होते हैं रिश्ते
जब सामने कोई हो
और कहने को कुछ भी शेष न हो। 

- जेन्नी शबनम (27. 8. 2011)
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रविवार, 28 अगस्त 2011

276. इन्द्रधनुष खिला (बरसात पर 10 हाइकु) (पुस्तक - 19)

इन्द्रधनुष खिला 
(बरसात पर 10 हाइकु)

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1.
आकाश दिखा
इन्द्रधनुष खिला
मचले जिया।

2.
हुलसे जिया
घिर आए बदरा
जल्दी बरसे।

3.
धरती गीली
चहुँ ओर है पानी
हिम पिघला।

4.
भीगा अनाज
कुलबुलाए पेट
छत टपकी।

5.
बिजली कौंधी
कहीं जब है गिरी
खेत झुलसे।

6.
धरती ओढ़े
बादलों की छतरी
सूरज छुपा।

7.
मेघ गरजा
रिमझिम बरसा
मन हरसा।

8.
कारे बदरा
टिप-टिप बरसे
मन हरसे।

9.
इन्द्र देवता
हुए धरा से रुष्ट
लोग पुकारें।

10.
ठिठके खेत
कर जोड़ पुकारे
बरसो मेघ।

- जेन्नी शबनम (18. 8. 2011)
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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

275. राखी के धागे (राखी पर 11 हाइकु) (पुस्तक - 18)

राखी के धागे
(राखी पर 11 हाइकु)

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1.   
राखी का पर्व   
पूर्णमासी का दिन   
सावन माह   

2.   
राखी-त्योहार   
सब हों ख़ुशहाल   
भाई-बहन   

3.   
बहना आई   
राखी लेकर प्यारी   
भाई को बाँधी   

4.   
रक्षा बंधन   
प्यार का है बंधन   
पवित्र धागा   

5.   
रक्षा का वादा   
है भाई का वचन   
बहन ख़ुश   

6.   
भैया विदेश   
राखी किसको बाँधे   
राह निहारे  

7.   
राह अगोरे   
भइया नहीं आए   
राखी का दिन   

8.   
सजेगी राखी   
भैया की कलाई पे   
रंग-बिरंगी   

9.   
राखी की धूम   
दिखे जो चहुँ ओर   
मनवा झूमे   

10.   
रक्षा-बंधन   
याद रखना भैया   
प्यारी बहना   

11.   
अटूट रिश्ता   
जोड़े भाई-बहन   
रक्षा बंधन   

- जेन्नी शबनम (13. 8. 2011)   
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सोमवार, 22 अगस्त 2011

274. दुनिया बहुत रुलाती है (क्षणिका)

दुनिया बहुत रुलाती है

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प्रेम की चाहत कभी कम नहीं होती
ज़िन्दगी बस दुनियादारी में कटती है
कमबख़्त ये दुनिया बहुत रुलाती है। 

- जेन्नी शबनम (21. 8. 2011 )
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शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

273. फिर से मात (तुकांत)

फिर से मात

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बेअख़्तियार-सी हैं करवटें, बहुत भारी है आज की रात
कह दिया यूँ तल्ख़ी से उसने, तन्हाई है ज़िन्दगी की बात। 

साथ रहने की वो गुज़ारिश, बन चली आँखों में बरसात
ख़त्म होने को है ज़िन्दगानी, पर ख़त्म नहीं होते जज़्बात।  

सपने पलते रहे आसमान के, छूटी ज़मीन बने ऐसे हालात
वक़्त से करते रहे थे शिकवा, वक़्त ही था बैठा लगाए घात। 

शिद्दत से जिसे चाहा था कभी, मिले हैं ऐसे कुछ लम्हे सौग़ात
अभी जाओ ओ समंदर के थपेड़ों, आना कभी फिर होगी मुलाक़ात। 

दोराहे पर है ठिठकी ज़िन्दगी, क़दम-क़दम पर खड़ा आघात
देखो सब हँस पड़े क़िस्मत पर, 'शब' ने खाई है फिर से मात। 

- जेन्नी शबनम (11. 8. 2011 )
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सोमवार, 15 अगस्त 2011

272. राम नाम सत्य है

राम नाम सत्य है

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कोई तो पुकार सुनो
कोई तो साहस करो
चीख नहीं निकलती
पर दम निकल रहा है उनका
वो अपने दर्द में ऐसे टूटे हैं
कि ज़ख़्म दिखाने से भी कतराते हैं
उनकी सिसकी मुँह तक नहीं आती
गले में ही अटक जाती है
करुणा नहीं चाहते
मेहनत से जीने का अधिकार चाहते हैं
जो उन्हें मिलता नहीं
और छीन लेने का साहस नहीं
क्योंकि
बहुत तोड़ा गया वर्षों वर्ष उनको
दम टूट जाए पर ज़बान चुप रहे
इसी कोशिश में रोज़-रोज़ मरते हैं
चिथड़ों में लिपटे बच्चों की
ज़बान भी चुप हो गई है
रोने केलिए
पेट में अनाज तो हो
देह में जान तो हो
लहलहाती फ़सलें प्रकृति लील गई
देह की ताकत
ख़ाली पेट की मजूरी तोड़ गई
हाथ अकेला 
भँवर बड़ा
उफ!
इससे तो अच्छा है
जीवन का अंत
एक साथ सब बोलो
राम नाम सत्य है!

- जेन्नी शबनम (15. 8. 2011)
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