बुधवार, 21 जून 2023

760. हरदी गुरदी

हरदी गुरदी 

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कभी-कभी जी चाहता है   

इतना जिऊँ इतना जिऊँ इतना जिऊँ

कि ज़िन्दगी कहे-

अब बस! थक गई! अब और नहीं जी सकती! 

हरदी गुरदी! हरदी गुरदी! हरदी गुरदी!

पर सोचती हूँ

मैं ज़िन्दा भी हूँ क्या?

जो इतना जिऊँ इतना जिऊँ इतना जिऊँ

क्यों जियूँ, कैसे जियूँ, कितना जियूँ?

मैं तो कब की मर चुकी 

कभी भाला कभी तीर व तलवार से

सदियों सदियों सदियों से

अभी तेज़ाब आग बलात्कार और चुन्नी के फन्दों से

इसी सदी में इसी सदी में इसी सदी में

आज खून से लथपथ चीख रही हूँ 

अभी अभी अभी

 तब किसी ने सुना  देखा  जाना

 अब। 

दिन महीने साल  सदियाँ 

आपस में कानाफूसी करते रहते-

ये ज़िन्दा क्यों रहती है?

ये मरकर हर बार जी क्यों जाती है?

मौत इसको छूकर लौट क्यों आती है 

ये औरतें भी  अजीब चीज़ हैं 

कितना भी मारो 

जीना नहीं छोड़ती। 

सोचती हूँ 

मैं हँसती हूँ तो प्रश्न

प्रेम करती हूँ तो प्रश्न

अकेलेपन को भोगती हूँ तो प्रश्न

आबरू बचाने के लिए जूझती हूँ तो प्रश्न 

हिम्मत दिखाती हूँ तो प्रश्न 

हार जाती हूँ तो प्रश्न 

अधिकार माँगती हूँ तो प्रश्न 

प्रश्न प्रश्न प्रश्न। 

उफ!

मेरी ज़ात ज़िन्दा है

यह प्रश्न है

बहुत बहुत बहुत जीना चाहती

यह भी प्रश्न है। 

प्रश्नों से घिरी मैं 

इतना इतना इतना जिऊँगी

कि ज़िन्दगी कहे-

जीना सीखो इससे

फिर कभी न कहना-

हरदी गुरदी! हरदी गुरदी! हरदी गुरदी!


- जेन्नी शबनम (21.6.2023)

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