शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

402. जन्म का खेल (7 हाइकु) पुस्तक 34,35

जन्म का खेल

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1.
हर जन्म में 
तलाशती ही रही 
ज़रा-सी नेह। 

2.
प्रतीक्षारत 
एक नए युग की 
कई जन्मों से। 

3.
परे ही रहा 
समझ से हमारे 
जन्म का खेल। 

4.
जन्म के साथी 
हो ही जाते पराए
जग की रीत। 

5.
रोज़ जन्मता 
पल-पल मरके 
है वो इंसान। 

6.
शाश्वत खेल 
न चाहें पर खेलें 
जन्म-मरण। 

7.
जितना सच 
है जन्म, मृत्यु भी है 
उतना सच। 

- जेन्नी शबनम (26. 4. 2013)
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बुधवार, 24 अप्रैल 2013

401. अब तो जो बचा है (पुस्तक- 79)

अब तो जो बचा है

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दो राय नहीं 
अब तक कुछ नहीं बदला था  
न बदला है, न बदलेगा 
सभ्यता का उदय और संस्कार की प्रथाएँ 
युग परिवर्तन और उसकी कथाएँ
आज़ादी का जंग और वीरता की गाथाएँ 
एक-एक कर सब बेमानी 
शिक्षा-संस्कार-संस्कृति, घर-घर में दफ़न, 
क्रांति-गीत, क्रांति की बातें 
धर्म-वचन, धार्मिक-प्रवचन 
जैसे भूखे भेड़ियों ने खा लिए
और उनकी लाश को
मंदिर मस्जिद पर लटका दिया, 
सामाजिक व्यवस्थाएँ 
जो कभी व्यवस्थित हुई ही नहीं 
सामाजिक मान्यताएँ, चरमरा गईं  
नैतिकता, जाने किस सदी की बात थी 
जिसने शायद किसी पीर के मज़ार पर 
दम तोड़ दिया था, 
कमज़ोर क़ानून 
ख़ुद ही जैसे हथकड़ी पहन खड़ा है 
अपनी बारी की प्रतीक्षा में 
और कहता फिर रहा है  
आओ और मुझे लूटो-खसोटो
मैं भी कमज़ोर हूँ  
उन स्त्रियों की तरह 
जिन पर बल प्रयोग किया गया
और दुनिया गवाह है, सज़ा भी स्त्री ने ही पाई, 
भरोसा, अपनी ही आग में लिपटा पड़ा है
बेहतर है वो जल ही जाए 
उनकी तरह जो हारकर ख़ुद को मिटा लिए 
क्योंकि उम्मीद का एक भी सिरा न बचा था
न जीने के लिए, न लड़ने के लिए,
निश्चित ही, पुरुषार्थ की बातें 
रावण के साथ ही ख़त्म हो गई 
जिसने छल तो किया
लेकिन अधर्मी नहीं बना  
एक स्त्री का मान तो रखा,
अब तो जो बचा है
विद्रूप अतीत, विक्षिप्त वर्तमान 
और लहूलुहान भविष्य 
और इन सबों की साक्षी 
हमारी मरी हुई आत्मा! 

- जेन्नी शबनम (24. 4. 2013)
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रविवार, 21 अप्रैल 2013

400. रात (11 हाइकु) पुस्तक 33, 34

रात

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1.
चाँद न आया 
रात की बेक़रारी
बहुत भारी। 

2.
रात शर्माई 
चाँद का आलिंगन 
पूरनमासी।  

3.
रोज़ जागती 
तन्हा रात अकेली 
दुनिया सोती। 

4.
चन्दा के संग
रोज़ रात जागती 
सब हैं सोए।  

5.
जाने किधर  
भटक रही नींद 
रात गहरी। 

6. 
चाँद जो सोया 
करवट लेकर 
रात है रूठी। 

7.
चाँद को जब  
रात निगल गई 
चाँदनी रोई। 

8.
हिस्से की नींद 
सदियों बाद मिली 
रात है सोई। 

9.
रात जागती 
सोई दुनिया सारी 
मन है भारी। 

10.
अँधेरी रात, 
है चाँद-सितारो  की 
बैठक आज।  

11.
काला-सा टीका 
रात के माथे पर 
कृष्ण पक्ष में। 

- जेन्नी शबनम (2. 4. 2013)
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बुधवार, 17 अप्रैल 2013

399. इलज़ाम न दो

इलज़ाम न दो

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आरोप निराधार नहीं 
सचमुच तटस्थ हो चुकी हूँ 
संभावनाओं की सारी गुंजाइश मिटा रही हूँ 
जैसे रेत पे ज़िन्दगी लिख रही हूँ
मेरी नसों का लहू आग में लिपटा पड़ा है 
पर मैं बेचैन नहीं
जाने किस मौसम का इंतज़ार है मुझे?
आग के राख में बदल जाने का 
या बची संवेदनाओं से प्रस्फुटित कविता के 
कराहती हुई इंसानी हदों से दूर चली जाने का
शायद इंतज़ार है 
उस मौसम का जब 
धरती के गर्भ की रासायनिक प्रक्रिया 
मेरे मन में होने लगे 
तब न रोकना मुझे न टोकना 
क्या मालूम 
राख में कुछ चिंगारी शेष हो 
जो तुम्हारे जुनून की हदों से वाक़िफ़ हों
और ज्वालामुखी-सी फट पड़े 
क्या मालूम मुझ पर थोपी गई लांछन की तहरीर 
बदल दे तेरे हाथों की लकीर
बेहतर है 
मेरी तटस्थता को इलज़ाम न दो
मेरी ख़ामोशी को आवाज़ न दो
एक बार 
अपने गिरेबान में झाँक लो।  

- जेन्नी शबनम (21. 2. 2013)
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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

398. मन में है फूल खिला (माहिया लिखने का प्रथम प्रयास) (5 माहिया)

मन में है फूल खिला (5 माहिया) 
(माहिया लिखने का प्रथम प्रयास)

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1.
जाने क्या लाचारी   
कोई ना समझे    
मन फिर भी है भारी !  

2.
सन्देशा आज मिला  
उनके आने का 
मन में है फूल खिला !

3.
दुनिया भरमाती है  
है अजब पहेली   
समझ नहीं आती है !

4.
मैंने दीप जलाया   
जब भी तू आया 
मन ने झूमर गाया  ! 

5.
चुपचाप हवा आती 
थपकी यूँ देती  
ज्यों लोरी है गाती !

- जेन्नी शबनम (3. 4. 2013)

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बुधवार, 3 अप्रैल 2013

397. अद्भुत रूप (5 ताँका)

अद्भुत रूप (5 ताँका) 

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1.
नीले नभ से
झाँक रहा सूरज, 
बदली खिली 
भीगने को आतुर
धरा का कण-कण ! 

2.
झूमती नदी 
बतियाती लहरें
बलखाती है 
ज्यों नागिन हो कोई  
अद्भुत रूप लिये !

3.
मैली कुचैली 
रोज़-रोज़ है होती
पापों को धोती, 
किसी को न रोकती 
बिचारी नदी रोती ! 

4.
जल उठा है 
फिर से एक बार 
बेचारा चाँद 
जाने क्यों चाँदनी है 
रूठी अबकी बार ! 

5.
उठ गया जो 
दाना-पानी उसका 
उड़ गया वो,
भटके वन-वन 
परिंदों का जीवन !

- जेन्नी शबनम (1. 4. 2013)

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