सोमवार, 20 अप्रैल 2009

55. ख़ुद पर कैसे लिखूँ

ख़ुद पर कैसे लिखूँ

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कल पूछा किसी ने
मैं दर्द के नग़्मे लिखती हूँ
किसका दर्द है, किसके ग़म में लिखती हूँ
मेरा ग़म नहीं ये, फिर मैं कैसे लिखती हूँ?
सोचती रही, सच में, मैं किस पर लिखती हूँ?

आज अचानक ख़याल आया, ख़ुद पर कुछ लिखूँ
अतीत की कहानी या वक़्त की नाइंसाफ़ी लिखूँ
दर्द, मैं तो उगाई नहीं, रब की मेहरबानी ही लिखूँ,
मेरा होना मेरी कमाई नहीं, ख़ुद पर क्या लिखूँ?

एक प्रश्न-सा उठ गया मन में- मैं कौन हूँ, क्या हूँ?
क्या वो हूँ, जो जन्मी थी, या वो, जो बन गई हूँ
क्या वो हूँ, जो होना चाहती थी, या वो, जो बनने वाली हूँ,
ख़ुद को ही नहीं पहचान पा रही, अब ख़ुद पर कैसे लिखूँ?

जब भी कहीं अपना दर्द बाँटने गई, और भी ले आई
अपने नसीब को क्या कहूँ, उनकी तक़दीर देख सहम गई, 
अपनी पहचान तलाशने में, ख़ुद को जाने कहाँ-कहाँ बिखरा आई
अब अपना पता किससे पूछूँ, सबको अपना आप ख़ुद ही गँवाते पाई

मेरे दर्द के नग़्मे हैं, जहाँ भी उपजते हों, मेरे मन में ठौर पाते हैं
मेरे मन के गीत हैं, जहाँ भी बनते हों, मेरे मन में झंकृत होते हैं
जो है, बस यही है, मेरे दर्द कहो या अपनों के दर्द कहो
ख़ुद पर कहूँ, या अपनों पर कहूँ, मेरे मन में बस यही सब बसते हैं

- जेन्नी शबनम (20. 4. 2009)
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