सोमवार, 4 अप्रैल 2016

510. दहक रही है ज़िन्दगी (तुकांत)

दहक रही है ज़िन्दगी  

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ज़िन्दगी के दायरे से भाग रही है ज़िन्दगी  
ज़िन्दगी के हाशिये पर रुकी रही है ज़िन्दगी    

बेवज़ह वक़्त से हाथापाई होती रही ताउम्र  
झंझावतों में उलझकर गुज़र रही है ज़िन्दगी   

गुलमोहर की चाह में पतझड़ से हो गई यारी  
रफ़्ता-रफ़्ता उम्र गिरी ठूँठ हो रही है ज़िन्दगी   

ख़्वाब और फ़र्ज़ का भला मिलन यूँ होता कैसे  
ज़मीं मयस्सर नहीं आस्माँ माँग रही है ज़िन्दगी   

सब कहते उजाले ओढ़के रह अपनी माँद में  
अपनी ही आग से लिपट दहक रही है ज़िन्दगी   

- जेन्नी शबनम (4. 4. 2016)
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