ऐसा क्यों जीवन...
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ये कैसा सहर है
ये कैसा सफर है
रात सा अँधेरा जीवन का सहर है
उदासी पसरा जीवन का सफर है।
सुबह से शाम बीतता रहा
जीवन का मौसम रूलाता रहा
धरती निगोडी बाँझ हो गई
आसमान जो सारी बदली पी गया।
अब तो आँसू है पीना
और सपने है खाना
यही है जिन्दगी
यही हम जैसों की कहानी।
न मौसम है सुनता
न हुकूमत ही सुनती
मिटते जा रहे हम
पर वे हँसते हैं हमपर।
सियासत के खेलों ने
बड़ा है तड़पाया
फाँसी के फँदों की
बाँहों में पहुँचाया।
हमारे कत्ल का इल्जाम
हम पर ही है आया -
पिछले जन्म का था पाप
जो अब हमने है चुकाया।
अब आजादी का मौसम है
न भूख है न सपने हैं
न आँसू है न अपने हैं
न सियासत के धोखे हैं।
हम मर गए पर मेरे सवाल जीवित हैं -
हम कामगारों का ही ऐसा क्यों जीवन
हमसे हैं वे जीते और हम हैं क्यों मरते
हमारे पुरखे भी मरते हम भी हैं मरते।
कैसा सहर है
कैसा सफर है
मौत में उजाला ढूँढता हमारा सहर है
बेमोल जीवन यही जीवन का सफर है।
बेमोल जीवन यही जीवन का सफर है।
- जेन्नी शबनम (1. 5. 2018)
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