गुरुवार, 6 अगस्त 2009

77. काश! हम ज़ंजीर बने न होते

काश! हम ज़ंजीर बने न होते

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नहीं मालूम कब
हम प्रेम पथिक से, लौह-ज़ंजीर बनते चले गए
वक़्त और ज़िन्दगी की भट्ठी में
हमारे प्रेम की अक्षुण्ण सम्पदा जल गई
और ज़ंजीर की एक-एक कड़ी की तरह
हम जुड़ते चले गए।  

कभी जिस्म और रूह का कुँवारापन
तो कभी हमारा मौन प्रखर-प्रेम कड़ी बना
कभी रिश्ते की गाँठ और हमारा अनुबंध
कभी हमारी मान-मर्यादा और रीति-नीति
तो कभी समाज और कानून कड़ी बना।  

कभी हम फूलों से, एक दूसरे का दामन सजाते रहे
और उसकी ख़ुशबू में हमारा कस्तूरी देह-गंध कड़ी बना
कभी हम कटु वचन-बाणों से एक दूसरे को बेधते रहे
कि ज़ख़्मी क़दम परिधि से बाहर जाने का साहस न कर सके
और आनन्द की समस्त संभावनाओं का मिटना एक कड़ी बना

वक़्त और ज़िन्दगी के साथ, हम तो न चल सके
मगर हमारी कड़ियों की गिनती रोज़-रोज़ बढ़ती गई
हम दोनों, दोनों छोर की कड़ी को मज़बूती से थामे रहे
हर रोज़, एक-एक कड़ी जोड़ते रहे और दूर होते रहे
ये छोटी-छोटी कड़ियाँ मिलकर बड़ी ज़ंजीर बनती गई

काश! हम ज़ंजीर बने न होते
हमारे बीच कड़ियों के टूटने का भय न होता
मन, यूँ लौह-सा कठोर न बनता
हमारा जीवन, यूँ सख़्त कफ़स न बनता
बदनुमा का इल्ज़ाम, एक दूसरे पर न होता

प्रेम के धागे से बँधे सिमटे होते
एक दूसरे की बाहों में संबल पाते
उन्मुक्त गगन में उड़ते फिरते
हम वक़्त के साथ क़दम मिलाते
उम्र का पड़ाव वक़्त की थकान बना न होता

ख़ुशी यूँ बेमानी नहीं, इश्क बन गया होता
हम बेपरवाह, बेइंतिहा मोहब्बत के गीत गाते
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा, रूमानी बन गया होता
हम इश्क़ के हर इम्तहान से गुज़र गए होते
काश! हम ज़ंजीर बने न होते

- जेन्नी शबनम (3. 8. 2009)
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