सोमवार, 17 जून 2019

616. कड़ी

कड़ी   

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अतीत की एक कड़ी   
मैं ख़ुद हूँ   
मन के कोने में, सबकी नज़रों से छुपाकर   
अपने पिता को जीवित रखा है   
जब-जब हारती हूँ   
जब-जब अपमानित होती हूँ   
अँधेरे में सुबकते हुए, पापा से जा लिपटती हूँ   
 ख़ूब रोती हूँ, ख़ूब ग़ुस्सा करती हूँ   
जानती हूँ पापा कहीं नहीं   
थककर ख़ुद ही चुप हो जाती हूँ   
यह भूलती नहीं, कि रोना मेरे लिए गुनाह है   
चेहरे पे मुस्कान, आँखों पर चश्मा   
सब छुप जाता है ज़माने से   
पर हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा   
सिमटती जा रही हूँ, मिटती जा रही हूँ   
जीने की आरज़ू, जीने का हौसला   
सब शेष हो चुका है   
न रिश्ते साथ देते हैं, न रिश्ते साथ चलते हैं   
दर्द की ओढ़नी, गले में लिपटती है   
पिता की बाँहें, कभी रोकने नहीं आतीं   
नितांत अकेली मैं   
अपनों द्वारा कतरे हुए परों को, सहलाती हूँ   
कभी-कभी चुपचाप   
फेविकोल से परों को चिपकाती हूँ   
जानती हूँ, यह खेल है, झूठी आशा है   
पर मन बहलाती हूँ   
हार अच्छी नहीं लगती मुझे   
इसलिए ज़ोर से ठहाके लगाती हूँ   
जीत का झूठा सच सबको बताती हूँ   
बस अपने पापा को सब सच बताती हूँ   
ज़ोर से ठहाके लगाती हूँ   
मन बहलाती हूँ।   

- जेन्नी शबनम (17. 6. 2019)   
(पितृ-दिवस पर) 
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शुक्रवार, 7 जून 2019

615. नहीं आता (अनुबन्ध/तुकान्त)

नहीं आता   

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ग़ज़ल नहीं कहती   
यूँ कि मुझे कहना नहीं आता   
चाहती तो हूँ मगर   
मन का भेद खोलना नहीं आता।   

बसर तो करनी है पर   
शहर की आबोहवा बेगानी लगती   
रूकती हूँ समझती हूँ   
पर दमभरकर रोना नहीं आता।   

सफ़र में अब जो भी मिले   
मुमकिन है मंज़िल मिले न मिले   
परवाह नहीं पाँव छिल गए   
दमभर भी हमें ठहरना नहीं आता।   

मायूसी मन में पलती रही   
अपनों से ज़ख़्म जब भी गहरे मिले   
कोशिश की थी कि तन्हा चलूँ   
पर अपने साथ जीना नहीं आता।   

यादों के जंजाल में उलझके   
बिसुराते रहे हम अपने आज को   
हँस-हँसके ग़म को पीना होता   
पर 'शब' को यूँ हँसना नहीं आता।   

- जेन्नी शबनम (7. 6. 2019)   
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शनिवार, 1 जून 2019

614. नज़रबंद

नज़रबंद   

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ज़िन्दगी मुझसे भागती रही   
मैं दौड़ती रही, पीछा करती रही   
एक दिन आख़िर वो पकड़ में आई   
ख़ुद ही जैसे मेरे घर में आई   
भागने का सबब पूछा मैंने   
झूठ बोल बहला दिया मुझे,   
मैं अपनी खामी ढूँढती रही   
आख़िर ऐसी क्या कमी थी   
जो ज़िन्दगी मुझसे कह गई   
मेरी सोच, मेरी उम्र या फिर जीने का शऊर   
हाँ! भले मैं बेशऊरी   
पर वक़्त से जो सीखा वैसे ही तो जिया मैंने   
फिर अब?   
आजीज आ गई ज़िन्दगी   
एक दिन मुझे प्रेम से दुलारा, मेरे मन भर मुझे पुचकारा   
हाथों में हाथ लिए मेरे, चल पड़ी झील किनारे   
चाँद तारों की बात, फूल और ख़ुशबू थी साथ   
भूला दिया मैंने उसका छल   
आँखें मूँद काँधे पे उसके रख दिया सिर   
मैं ज़िन्दगी के साथ थी   
नहीं-नहीं मैं अपने साथ थी   
फिर हौले से उसने मुझे झिंझोड़ा   
मैंने आँख मूँदे मुस्कुरा कर पूछा-   
बोलो ज़िन्दगी, अब तो सच बताओ   
क्यों भागती रही तुम तमाम उम्र   
मैं तुम्हारा पीछा करती रही ताउम्र   
जब भी तुम पकड़ में आई   
तुमने स्वप्नबाग दिखा मुझसे पीछा छुड़ाया,   
फिर ज़िन्दगी ने मेरी आँखों में देखा   
कहा कि मैं झील की सुन्दरता देखूँ   
अपना रूप उसमें निहारूँ,   
मैं पागल फिर से छली गई   
आँखें खोल झील में ख़ुद को निहारा   
मेरी ज़िन्दगी ने मुझे धकेल दिया   
सदा के लिए उस गहरी झील में   
बहुत प्रेम से बड़े धोखे से,   
अब मैं झील में नज़रबंद हूँ   
ज़िन्दगी की बेवफाई से रंज हूँ   
अब न ज़िन्दगी का कारोबार होगा   
न ज़िन्दगी से मुलाक़ात होगी   
अब कौन सुनेगा मुझको कभी   
न किसी से बात होगी।    

- जेन्नी शबनम (1. 6. 2019)   
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