कैक्टस...
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एक कैक्टस मुझमें भी पनप गया है
जिसके काँटे चुभते हैं मुझको
और लहू टपकता है
चाहती हूँ
हँसू खिलखिलाऊँ
बिन्दास उड़ती फिरूँ
पर जब भी उठती हूँ
चलती हूँ
उड़ने की चेष्टा करती हूँ
मेरे पाँव और मेरा मन
लहूलूहान हो जाता है
उस कैक्टस से
जिसे मैंने नहीं उगाया
बल्कि समाज ने मुझमें जबरन रोपा था
जब मैं कोख में आई थी
और मेरी जन्मदात्री
अपने कैक्टस से लहूलूहान थी
जिसे उसकी जन्मदात्री ने तब दिया
जब वो गर्भ में आई थी
देखो! हम सब का लहू रिस रहा है
अपने-अपने कैक्टस से।
- जेन्नी शबनम (31. 3. 2018)
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