मंगलवार, 26 नवंबर 2013

426. जी उठे इंसानियत

जी उठे इंसानियत

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कभी तफ़सील से करेंगे
रूमानी ज़ीस्त के चर्चे
अभी तो चल रही है
नाज़ुक लहूलुहान हवा
डगमगाती
थरथराती
घबराती
इन्हें सँभालना ज़रुरी है
गिर जो गई होश हमारे भी मिट जाएँगे
न रहेगा तख़्त न बचेगा ताज
उजड़ जाएगा बेहाल चमन
मुफ़लिसी जाने कब कर जाएगी ख़ाक
छिन जाएगा अमन
तड़प कर चीख़ेगी 
सूरज की हताश किरणें
चाँद की व्याकुल चाँदनी
आसमाँ से लहू बरसेगा
धरती की कोख आग उगलेगी
हम भस्म होंगे
और हमारी नस्लें कुतर-कुतर कर खाएँगी
अपना ही चिथड़ा
ओह!
छोड़ो रुमानी बातें, इश्क के चर्चे  
अभी वक़्त है 
इंसान के वजूद को बचा लो
आग हवा पानी से ज़रा बहनापा निभा लो
जंगल ज़मीन को पनपने दो
हमारे दिलों को जला रही है
अपने ही दिल की चिंगारी
मौसम से उधारी लेकर
चुकाओ दुनिया की क़र्ज़दारी
नहीं है फ़ुर्सत
किसी को भी नहीं 
सँभलने की या सँभालने की 
तुम बर्खास्त करो अपनी फ़ुर्सत
और सबको भेजो जबरन
अपनी-अपनी हवाओं को सँभालने
अब नहीं तो शायद कभी नहीं
और न आएगा कोई हँसीं मौसम
वक़्त से गुस्ताख़ी करता हुआ
फिर कभी न हो पाएँगी 
फ़सलो की बातें
फूल की बातें
रुह की बातें
दिल के कच्चे-पक्के
इश्क़ की बातें
आओ अपनी-अपनी हवाओं को टेक दें
और भर दें मौसम की नज़ाकत
छोड़ जाएँ
थोड़ी रुमानियत
थोड़ी रुहानियत
ताकि जी उठे इंसानियत
फिर लोग दोहराएँगे
हमारे चर्चे 
और हम तफ़सील से करेंगे 
रूमानी ज़ीस्त के चर्चे।

- जेन्नी शबनम (26. 11. 2013)
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